'अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई'
'अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई'
जिसने हल - कुदाल चलाकर अन्न उपजाई,
जो दिन रात खून- पसीना बहाकर ,
खुद भूखे पेट रहकर हमारी भूख मिटाते,
उनसे ही हमारी व्यवस्था करती क्रूरतम लड़ाई ,
हाय! हाय! अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई !
उनके अनमोल फसल की कीमत भी हमारी तंत्र न चुकाती,
लागत खाद- बीज- पानी की जरूरत की भी करते नहीं भरपाई !
हक माँगने आते जब वे खुद , तो हमारी व्यवस्था उनसे ही उलझती करती हाथापाई !
हाय ! हाय ! अन्नदाता की व्यथा देखी न जाई , दुर्दशा उनकी मानवता की बेधती खाई !
कर्ज तले दबे हुए, ऊपर से मौसम की निर्मम मार खाई !
कहीं से जब आश न दिखी तो आत्महत्या की नौबत तक आई !
जो देश का पेट भरन ,आज वो खुद हैं दाने-दाने के मोहताज ,
हमारे नजरों में वे फिर भी क्यों बने हैं पराई।
हाय ! हाय ! अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई !
जिनके काम पर, विकास की पुलिंदा बाँधते ,
नाम खुद का रखने में,तुम्हें शर्म तनिक न आई ?
जो देश के विकास के आधार हैं ,उनकी ही गाड़ी बीच अधर में अटकी ,
चारों ओर दिखती गर्त और खाई !
हाय ! हाय ! अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई !
व्यथा सुनकर पाषाण भी पिघल पानी बन जाई !
छोड़ रहे तरकश से अमोघ व्यंग्यी- बाण हरिशंकर परसाई !
कलम की नम स्याही से दर्द उकेरते बृजलाला रोहन सरीखे किसानों का बेटा ,उनकी रहनुमाई !
बहुत सो लिये अब तो जागो मेरे भाई ,अधिकार दिलाकर हम बने उनकी निर्भीक भाई ।
हाय! हाय ! अन्नदाता की दुर्दशा अब देखी न जाई !