अँधेरे को अहसास नहीं कि
अँधेरे को अहसास नहीं कि
अंधेरे को अहसास नहीं कि उजाले की ओट में है, अगर होता तो कुछ और ही आलम होता,
एक दीये की रोशनी से दूर होता अंधेरा, अगर यह पता होता तो कुछ और ही आलम होता।
हो कर दिग्भ्रमित सोचता अँधियारा, कि है इस जग पर उसका ही राज सदा,
पर ज्यूँ ही होता जरा सा उजियारा, भाग खड़ा होता अँधियारा, अँधेरे की यही है कथा।
एक बार अँधेरे ने पूछा उजियारे से, “मेरे सामने इस संसार में तुम्हारी क्या है औकात”?
कहा उजियारे ने अँधेरे से, “मेरी ओट में रहते हो, मैं आऊं तो गुम होते हो, यही तो मूल बात”।
इस लुका छुपी के खेल में हार जाते हो सदा, फिर क्यूँ दिखाते हो अपनी झूठी औकात”?
मैं तो संसार को सद्भाव सिखाता, देता मन की आस, तुम करते हो निराशा की बात”।
अँधेरे ने भी दिया झट पलट जवाब, “मुझसे तो लोग हैं डरते रहते, यही तो है महत्व की बात”,
“डरा कर जीतने में क्या है मजा, प्रीत ही जीत की असली बात”, कही उजियारे ने पते की बात।
“मैं तो देता प्रकाश का सन्देश जग को, एक छोटी सी ज्योति किरण भगा देती अंधियारे को”
“जब मैं सोता हूँ तब होता तुम्हारा आगमन, मेरी ओट में रहते फिर भी साहस मुझे आँख दिखाने को”।
चाँद तारों की रोशनी जब पड़ती धरा पर, अँधेरे को होती रहती बेमतलब तकलीफ़,
फिर भी नहीं सुधरता अँधियारा, करता रहता सदा अपनी बड़ी बड़ी तारीफ़।
मूढ़ मति इन्सान की भी हालत, होती यदा कदा इसी अंधियारे जैसी,
दिखाता खुद को ज्यादा ही समझदार, करता समझदारों की ऐसी की तैसी।
कुछ न जानते हुए भी जानकार बनता, दिखाता सदा समझदारों को औकात,
समझदार जब दिखाते अपनी समझदारी, तब होते मूर्खों के बुरे बहुत हालात।
कुछ तो हो अपनी औकात का अहसास, जाने क्यूँ सब अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते रहते ?
पड़ती जब भी कभी उजियारे की मार, तभी अँधेरे अपनी सही हैसियत को समझ हैं पाते।