अंधेरा : प्रेम का संरक्षक
अंधेरा : प्रेम का संरक्षक
❤️ अंधेरा : प्रेम का संरक्षक ❤️
(श्रृंगारित काव्य)
✍️ श्री हरि
🗓️ 30.8.2025
जहाँ नहीं दिखाई दे एक हाथ को दूसरा हाथ,
जहाँ आँखों ने डेरा डाला हो आँखों में,
वहाँ उलझें अधर, और जुल्फें पर्दा कर लें,
बाँहें कसें, जैसे सारी कायनात समा गई हो।
साँसों की लय में विलीन हो हर पल,
धड़कनों का संगीत बन जाए एकाकार,
वक्त भी ठहर जाए देखने प्रणय चातुर्य,
और अंधेरा बने प्रेम का मौन, अविचल गवाह।
हर स्पर्श में बसी हो "काम"की गूँज,
हर साँस में तैरती हो तृप्ति की लहरें,
जैसे अमावस की रात ने छुपा लिया हो
सूरज की ज्वाला और चाँद की शांति।
अंधेरे में ही पूर्ण होती प्रेम की लीला,
जहाँ दो देह हो जातीं एकाकार,
कामनाएं एक-दूसरे में बसेरा कर लें,
और शब्दों की जरूरत न रहे—
केवल स्पर्श बोलें।
जुल्फ़ें पर्दा करें, आँखें अपनी गहराई में डुबकियाँ लें,
बाँहें बाँधें, अधर छलकायें अमृत कलश,
और साँसों की हर लहर कहे—
"अंधेरा कायम रहे! इसी में प्रेम की लाज है।"
अंधेरा, प्रेम का गवाह बने,
संरक्षक भी, सन्नाटा भी गूँजे उन धड़कनों के संग,
हर छाया कहे
"जो यहाँ हुआ, वह केवल अंधेरे में ही हो सकता था"
हवा की सरसराहट में घुल जाए उनकी इच्छाएँ,
कपड़ों की हल्की सरसराहट भी गा उठे प्रेम का गीत,
और कमरे की हर कुहनी, हर कोना,
साक्षी बने उस अदृश्य संगम का,
जहाँ दो आत्माएँ एक होकर
समस्त ब्रह्मांड की सीमाएँ भूल जाएँ।
रात की तनहाइयों में चमकती हैं प्रेम की निशानियाँ,
जैसे दीपक की लौ में प्रतिबिंबित हो तृप्ति की मिठास,
और प्रेम की लीला को संरक्षण है अंधेरे का।
जहाँ दो प्रेमी गढ़ते हैं प्रेम की नई परिभाषा,
सारी कायनात प्रसन्न होकर करती है नृत्य।

