रामेश्वरम् से तिरुमाला तक
रामेश्वरम् से तिरुमाला तक
🌸 रामेश्वरम् से तिरुमला तक 🌸
🕉️ तीर्थयात्रा का काव्यमय वर्णन 🕉️
✍️ श्री हरि
🗓️ 7.12.2025
समुद्र की लहरों से चलकर
हम पहुँचे थे देवशिखर तक,
जहाँ नमक-सी तपिश भी थी,
और अमृत-सा शीतल स्पर्श भी।
नील जल में डूबी आँखों ने
श्वेत शंख की पुकार सुनी,
और पर्वत की चोटी पर
भगवान को साक्षात् देखा।
कभी रेत ने पाँव जलाए,
कभी सीढ़ियों ने साँस छीनी,
कभी भीड़ ने धैर्य परखा,
कभी प्रतीक्षा ने आत्मा को माँजा—
पर हर कष्ट के अंत में
एक दीप जला हमारे भीतर,
जिसकी लौ ने कहा—
“तू चल, मैं साथ हूँ।”
रामेश्वरम् की वायु में
शिव का मौन बोलता था,
और तिरुमला की चोटी पर
विष्णु का करुण मौन मुस्काता था।
एक ओर सागर का अनंत विस्तार,
दूसरी ओर पर्वत का अचल विश्वास—
हम इन्हीं दो ध्रुवों के बीच
कुछ दिन ईश्वर बने रहे।
थक गया था तन,
पर मन उड़ रहा था,
कदम लड़खड़ाते थे,
पर भीतर कोई अदृश्य शक्ति
हमें थामे चल रही थी।
लड्डू की मिठास में
भक्ति का स्वाद घुल गया,
और कीर्तन की ध्वनि में
हम स्वयं भूल गए कि
हम यात्री हैं,
या स्वयं ही यात्रा बन गए हैं।
जब विदा का समय आया,
आँखें नम थीं,
पर हृदय तृप्त था।
कुछ लोग अलग हो गए,
कुछ राहें बदल गईं,
पर स्मृतियों के पन्नों में
सब आज भी साथ चलते हैं।
और अब…
जब घर लौटकर भी मन
अभी तिरुमला की सीढ़ियों पर बैठा है,
तो समझ आता है—
यात्रा केवल स्थान बदलने का नाम नहीं,
यात्रा भीतर के मनुष्य का
ईश्वर से मिलने का नाम है।
🌼 यही इस यात्रा का सार है—
देह चली थी मंदिरों तक,
पर आत्मा लौट आई
स्वयं अपने मंदिर में।
🌸 — काव्यात्मक समापन — 🌸
