धर्म का मर्म
धर्म का मर्म
धर्म क्या है ? मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ
कि मैं धर्म को परिभाषित कर सकूं ?
व्याख्या और आलोचना की तो बात ही छोड़िए !
हिंदू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी,
यहूदी आदि- आदि नाम मेरे मतानुसार धर्म हो ही नहीं सकते ?
ये तो महज़ मन को महफूज़ रखने वाले मज़हब हैं।
सबका धर्म तो एक ही हैं और उस धर्म का नाम है - 'मानवता'
सच में इससे बड़ा कोई धर्म नहीं।
हाँ ! मैं उसी मानवता की बात कर रहा हूं,
जिसमें प्राणी सर्वजन- समभाव की भावना रखते हुए सबका समादर करे।
सभी को एक ही तुला में तोले।
व्रत-उपवास, पूजा - पाठ, प्रार्थना, इबादत, मत्था टेकना
ये सब तो उपासना की विधियाँ हो ही नहीं सकती
सच्ची उपासना तो सच्चे मन से सबके साथ
प्रेमपूर्वक, बंधुता के साथ जीने में है।
मुझे धर्म का मर्म भी मालूम नहीं।
मगर मेरे मतानुसार,
मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं।
दयालुता से बड़ा कोई कर्म नहीं।
किसी प्राणी को धर्म- जाति, लिंग, संस्कृति और
निजी विचारधारा के आधार पर हेय दृष्टिकोण अपनाना,
इस हीन भावना से बड़ा दुनिया में कोई शर्म नहीं।
सबके अंतर्मन की आवाज़ को बिना उसके इज़हार किये ही सुन लेना,
किसी असहायों का सहारा बनना और
सबके हित में सोचना ही तो धर्म का मर्म है।
