अनंत आकाश
अनंत आकाश
🌌 अनन्त आकाश
✍️ श्री हरि
🗓️ 2.12.2025
अनन्त आकाश…
मानो किसी ऋषि की दीर्घ श्वास,
अथाह, निर्विकार, अपने भीतर अनगिनत रहस्य समाए—
बिना किसी शोर के, बिना किसी आग्रह के
सबको समेटता हुआ, सबको ओढ़ता हुआ।
कभी लगता है—
जैसे स्वयं ब्रह्म की चुप्पी नीले रंग में फैलकर
ऊपर तैर रही हो।
जहाँ न सीमा है, न संकोच,
केवल स्वच्छता, व्याप्ति और दिव्यता का विस्तार।
साँझ के समय जब सूरज
धीमे से अपने सुनहरे पंख समेटता है,
तब आकाश के नीले वस्त्र पर
लाल, केसरिया, गुलाबी आभा ऐसे पड़ती है
जैसे कोई देव-कन्या
धीमे से दीपक की लौ पर चुनरी झुलसा दे।
रात उतरती है—
और आकाश अचानक
ज्योतिर्मय हो उठता है।
तारे एक-एक कर
किसी तपस्वी की आँखों में चमकते संकल्पों जैसे
दीप्त होने लगते हैं।
अनन्त आकाश…
हमसे कुछ नहीं माँगता,
पर हमें बहुत कुछ सिखा जाता है—
विस्तार रखना,
गहराई रखना,
और सबसे बढ़कर—
अपने भीतर सूर्य को उगने देना।
उसका मौन
कितना बोलता है!
जैसे कह रहा हो—
“चलते रहो… क्योंकि जहाँ सीमा लगती है,
वहीं से असल यात्रा शुरू होती है।”
और मैं…
हर बार ऊपर देखकर
अपने छोटे-से अस्तित्व को
उस विशाल नील-गगन में
घुल जाने देता हूँ।
यही अनन्त आकाश है—
बाहरी भी, भीतरी भी—
जिसमें उड़ना
मानव के भाग्य में लिखा है
और खो जाना,
उसकी मुक्ति में।
