अनचाही
अनचाही
मेरे जिस्म से निकल कर,
मेरे अमृत से सिंचित होकर,
मुझे ही अनचाही कहते हो...
चाहे पिता हो,पति हो,पुत्र हो
सब मुझको क्यों बहुत छलते हो...
तुम सब मेरा ही अंश हो,
चलाते मुझसे अपना वंश हो,
कभी सोन चिरैया,घर की लक्ष्मी
कहकर दिल बहलाते हो
कोई भी रिश्ता जोड़ लो मुझसे,
पर दिल मे मुझसे क्यों घबराते हो....
मुझ अनचाही से अपनी हर
चाहतें पूरी करने वाले तुम लोग
पग पग पर मुझे क्यों ठगते हो....
कभी मेरे रंग पर,कभी ढंग पर
मनचाहे ताने कसते हो,
घर की हर मुसीबत का हमेशा
मुझ पर ठीकरा फोड़ते हो,
वो अलग बात है,मेरी एक अदा
पर मरकर खून खराबे करने से
भी नहीं डरते हो...
पर अपना मतलब निकल जाने
पर,मुझसे क्यों तुम किनारा करते हो..
कभी अनचाही,कभी बदचलन कहकर
अपना पल्ला बेदर्दी से झाड़ लेते हो...
मुझसे ही तुम्हारे घर की रौनक,
राखी,भाईदूज मेरे होने से रोशन,
कोई ऐसा फर्ज नहीं, जो मैं निभाती नहीं,
हर मुसीबत में चट्टान सी कभी डिगती नहीं,
फिर भी मुझे अनचाही बेटी कहकर
गर्भ में गिराने वालों,मैं गर गलती से
पैदा हो जाऊं,मुझे,मेरी माँ को ,जलील
करने वालो...
सुन लो ,मैं ही तुम्हें इस सृष्टि में लाती हूँ,
मेरी कोमलता को मेरी कमजोरी न समझना,
मैं ही दुर्गा,क्षत्राणी हूँ,काली,कल्याणी हूँ,
कभी क्रोध में आ गई तो सृजन रुक जाएगा
फिर कौन किसको अनचाहा,अनचाही कह पायेगा??
