अनभिज्ञ
अनभिज्ञ
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मैं अनभिज्ञ सी
कि मेरा मुकाम क्या है?
जो मैं स्वयं अपनाऊँ
जो दूसरों को भी सुनाऊँ
इस जिंदगी का पैगाम क्या है?
मेरी जिंदगी में
अजनबी सी एक भगमभाग है
बिन धुएँ के उठने वाली
ये कैसी आग है?
जिंदगी की इस कशमकश में
मैं भूल चुकी हूँ
आखिर मेरा नाम क्या है ?
यूँ तो 1947 से आजादी
फिर भी सलाखों सी एक पाबंदी है
चलते कदमों के पद चिन्ह हैं
पर कर्मों में मंदी है
न बिगड़ती हूँ
न सँवरती हूँ
आखिर मेरा अंजाम क्या है?