अमर सुहागन
अमर सुहागन
रहूँगी वीर की पत्नी मुझे विधवा न बोलो तुम,
मुझे रहने सुहागन दो ये मंगलसुत्र न खोलो तुम।
मिटेंगे भी कहाँ मेरे जिगर के घाव हरगिज भी
न मरते वीर भारत में अमर उनको यूँ बोलो तुम।
न टूटेगी मेरी चूड़ी न मैं सिन्दूर धोऊँगी,
कलेजा भी फटे मेरा भले अब मैं न सोऊँगी।
मिटाना है नहीं मुझको बसा जेहन में वो मेरे
मिटे वो देश की खातिर मैं बिल्कुल भी न रोऊँगी।
लबों को चूमकर मेरे गये थे वो विदा होकर,
मिलूँगा मैं दुबारा फिर न रहना तुम खफा होकर।
शरारत भरके आँखों में जतायी प्रेम उनको थी
पता भी तब कहाँ ये था चलेंगे वो खफा होकर।
गँवाना जान भी ऐसे कहाँ उनको गँवारा था,
अभी तो खून सीने में उबलता ही कँवारा था।
तिरंगे की कसम खाकर सबक भी दे न पाये वो
बँटे टुकड़ों में उनके शव कि नामर्दों ने मारा था।
बुझा जो दीप देहरी का उन्हें फिर से जलाऊँगी,
लबों से अपने प्रियतम की अमर गुणगान गाऊँगी।
थमा दो शस्त्र हाथों में करूँगी देश की सेवा
बनी हूँ वीर की पत्नी मैं पत्नी धर्म निभाऊँगी।
मुझे अब खून से दुश्मन के अपने केश धोने हैं,
मुहब्बत की निशानी को यूँ ही अब जाया न होना है।
उसी दिन माँग का सिन्दूर अब अपने मिटाऊँगी
गँवाकर जान अपनी भी हमें हरगिज न रोना है।
सुनो अब प्रेम की भाषा नहीं उनको समझना है,
अदावत भरके आँखों में हमें उनको कुचलना है।
रुके हर हाल में उनकी चले नापाक साँसें जो
दिखाकर शान भारत की पकड़ उनको मसलना है।
सियासी बन्दिशें छोड़ो कि बन्धन शेर के तोड़ो,
बहुत ये हो गया कहना चलो जाने दो अब छोड़ो।
सबक इक बार फिर से अब सिखाना भी जरूरी है
झुको मत सामने उनके किसी के हाथ मत जोड़ो।