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प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'

Abstract

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प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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इश़्क में मैने खुदाई देख ली

कैद दिल में थी रिहाई देख ली।


है कही पर और ही उनकी नज़र,

अब सनम की बेवफाई देख ली।


ठंड में आँचल बिछौना नेह का,

डाँट माँ की थी रजाई देख ली।


इक तुम्हारे नाम का रक्खा दिया,

दे दुआ माँ ने जलाई देख ली।


आज भी आँखें नमी में ढूढ़ती,

मुफ़लिसी कितनी सताई देख ली।


कुछ बयाँ करती निगाहें भी तेरी,

और कुछ मिलकर जुदाई देख ली।


थामकर रिश्तों को रखते हाथ में,

उन बुजुर्गों की कलाई देख ली।


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