"ऐ! ज़िंदगी !"
"ऐ! ज़िंदगी !"


और कितना करीब से देखूँ?
"ऐ! ज़िंदगी" तुम्हें!
समय से पहले..
समझदारी ने.….
घर बना लिया था..
मेरे जेहन में..
समझने लगी थी...
माँ के दुखदर्द।
देखने लगी थी..
पिता के संघर्षों की...
धूमिल पड़ी परछाईं...
"ऐ! ज़िंदगी!"
चलने लगी थी..
सरपट...अनुभवहीन..
पगडंडियों पर..
बचपन को रख किनारे...
बड़ी हो गई थी..
अनोखेकाल को...
जीने से पहले...
हाँ! ये सच ही तो है...
मुझे ही तो ललक लगी थी..
तुझे देखने की..
बड़ी होके झटपट..
दौड़ लगाकर....
सबकुछ सुधार देने की..
"ऐ! ज़िंदगी".....।
अब तो...
ऐसा लगता है,मानों...
कल की ही हो...
ये सारी बातें..पर...
उम्र के दूसरे पायदान पर ही..
लड़खड़ाने लगे हैं पैर..
महसूस होने लगी है...
चौथेपन की वो..
बेचारगी भरी सांसें...
सीने में उठती--थमती..
कंपन करती धड़कनें...
"ऐ! ज़िंदगी!"
आईने के सामने...
निहारने लगी जब
खुद को..
बड़ी बेचैंन हो उठी हैं
मेरी नज़रे...
देखकर खुदके हालात...
देखो न.....!
हाथों में उगने लगी हैं नसें!!
पड़ने लगी हैं...
चेहरे पर झुर्रियाँ ...
आँखों के नीचे खीच गये हैं
काले भद्दे निशान!
बालों को भा गया है...
सफेद रंग..!!
"ऐ! ज़िंदगी"..
यूँ ही.....अब..
यादों में बसने लगी हैं
दादी-नानी की कहानियाँ...
अचेतन में दमित बचपना
रह-रहके आतुर हो उठा है
बाहर निकलने को...
बच्चे कहने लगे हैं...
ये क्या.. कर रही हो मम्मी?
बच्ची हो क्या?
समझ नही है तनिक भी तुम्हे!
सुनती हूँ....फिर....
निकल आती झठ से..
बचपने से बाहर...
ये आँखें नम है!
तो तजू्र्बा भी तो मिला
ऐ! ज़िंदगी!!.…
तेरे ये तीखे नै नैक़्श़
कभी बेहद हसीन लगते हैं
तो .. कभी बनकर शूल,
चुभते भी हैं हृदय में
बेवजह ही!!
क्या करूँ? मैं,
तुझसे कोई शिकवा और..
क्या करूँ? मैं कोई गिला।
जो भी मिला...
अपनो से मिला!
तू सच में बहुत
अनबूझी सी रही ...
ऐ! ज़िंदगी!!!"
बहुत थक गई हूँ मैं,
तू और कितने इम्तिहान लेगी?
जा!!! और क्या कर लेगी मेरा..
बहुत नाराज़ होगी तो...
तू मेरी जान लेगी...
कोई गम नही है...
माना कि..
अभी बहुत कुछ...
करना बाकी है...
जिंदगी की भट्ठी में...
तपकर निकलना बाकी है..।
पर मैने चुकता कर दिये
तेरे सारे हिसाब....
तू बेहद भूलक्कड़ है..
"ऐ! ज़िंदगी!"
फिर भी...
आतुर रहती है..
मुझसे ही बार-बार...
ले लेने को बेवजह हिसाब...
माना कि...
बेहद सच्ची है तू..पर...
जोड़-घटाने में ...
बहुत कच्ची है... तू...
"ऐ! ज़िंदगी!!"
.............!