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अलविदा प्रवीन!

अलविदा प्रवीन!

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तुम सुनो ऊपर से, प्रवीन

मेरी खिड़की के बाहर

बरफ़ गिर रही है।

ठण्ड से काँपती हुयी

सर्द चाँद से भी ठण्डे

हैं मेरे बाल

बर्फ़ की झिरी जमी है

मेरे चारों ओर

ठिठुरी उँगलियों से

छूती हूँ मैं ये कांच

मेरे और दुनिया के

बीच की खिड़की

बच्चे बड़े हो गए हैं,प्रवीन

मैं ही दो कम अस्सी

की हो गयी हूँ...

तुम्हें तो याद ही होगा कब?

...स्विट्ज़रलैंड

आ गयी हूँ मैं।

सब सफेद है यहाँ

सफ़ेद रुई और सफ़ेद

रूह का मिलन

अरसा हुआ अब

मेरी आँखों के नीचे

अमावस्या के साये

फ़िर भी झाँक लेते हैं

वहाँ, जहाँ तुम हो

मेरे लटक गए कान

यूं तो फ़िज़ूल ही

चिपके हैं नदी सी

बन गयी बारीक़

त्वचा से, मगर माहिर हैं

वो सुनने में, पुरानी बीन से

निकली पुरानी रागिनी।

बीती पदचाप और 

तुम्हारे बिना कुमार गन्धर्व

उड़ जा रे हंसा अकेला!

तुम भी तो ऐसे ही उड़ गए

नीले आसमान में

पँख पसारे

मेरी आँखों के कैमरे में क़ैद

सुनहरी धूप में विलुप्त

होता मेरा हँस

खुली खिड़की और

अचम्भित मैं...

बरसों बरस तुम्हारे बगैर

वो सुनहरी धूप न दिखी

फिर कभी

और यहाँ भी धुला आसमान, कितना अजीब

अब मुझे लग रहा है प्रवीन

जल्द ही निखरेगी वो धूप

कभी भी, बस जल्दी,ज़रूर

दिन भर मेरे फ़िज़ूल कानों में बजते हैं राग-फ़िज़ूल

अब मैं भी फैलाऊँगी

पँख सफ़ेद, उस सुनहरी

सुबह की ओर

मेरे पास भी तो हैं

आख़िर मैं हंसिनी!

पीछे छूट जायेगी ये खिड़की और श्वेत संसार

और हाँ मिनी और चिंटू भी

मैं बहुत ख़ुश हूँ प्रवीन

अब सही मायनों में

तुमसे कह रही हूँ

अलविदा

 


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