जिस रुख चले हो धीरे-धीरे
जिस रुख चले हो धीरे-धीरे
जिस रुख़ चले हो धीरे धीरे
मैं भी साथ चलूंगी बादल
बूंद-बूंद बरसूंगी
बूंद-बूंद में ढलूँगी बादल
प्रवासी हूँ मैं भी,
जंगली पौधे-सी पनपी हूँ बादल
जीवन मेरा मुझ-सा महक पाता नहीं है
भाषा मेरी यहाँ कोई समझ पाता नहीं है
तुम कुछ कुछ मुझसे लगते हो
तुममें मेरी कुछ पहचान है बादल
छोड़ दिया तुमने भी
तो अदा तुम्हारी लेकर कैसे मैं पलूंगी बादल?
जिस रुख़ चले हो धीरे धीरे
मैं भी साथ चलूंगी बादल
बांध तोड़कर सारे खुद को मुक्त करूँगी बादल
भीग भीग कर तुममें खुद को रिक्त करूँगी बादल।