अकाल
अकाल
जब ग्रीष्म ऋतु की लहर
मचाती है जोरों से कहर
नदी नाले सब सूख हैं जाते
कितने जीव प्यासे मर जाते।
जल की थी एक ठंडी धारा
सारी गर्मी वही होती सहारा
कमजोर होती पर सूखती ना थी
दूर-दूर तक धारा दूसरी ना थी।
एक समय की बात है सच्ची
दुविधा में जन और पशु पक्षी
जेष्ठ माह की तपती धूप थी
अग्नि लिए विकराल रूप थी।
पक्षियों ने थे घर बच्चे छोड़े
बिछड़ गए जाने कितने जोड़े
खरगोश बिलों से भागता देखा
अग्नि लांघ गई थी सारी रेखा।
रात रात भर थे जब मोर रोते
आंखें खुल जाती फिर ना सोते
सुबह होते ही आग बुझाने जाते
जल्दी जग जाते दूसरों को जगाते।
बस आग को तुम बुझा देना गर्मी में
यहीं काम एक कर देना जिंदगी में।