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VIVEK ROUSHAN

Abstract

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VIVEK ROUSHAN

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अजनबी सा लगता हूँ

अजनबी सा लगता हूँ

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हर  किसी की बाहों में ज़िन्दगी नहीं होती

खस्तगी तो होती है अब दिल्लगी नहीं होती


अजनबी चेहरों के बिच अजनबी सा लगता हुँ

अब तो मुझको जीने में कोई ख़ुशी नहीं होती


ये करम है आपका की आपने मुझको बरकत दी

वर्ना  मेरी  ज़िन्दगी यूँ बेरुखी नहीं होती


मैं तो अपने-आप से हीं गुफ़्तगू करता हुँ

अब मेरी किसी से कोई दोस्ती नहीं होती


आफ्ताब के ढलने से तीरगी छा जाती है

चाँद की ये रौशनी कोई रौशनी नहीं होती।


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