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Meera Kannaujiya

Abstract Fantasy Others

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Meera Kannaujiya

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अग्यार प्रकृति!

अग्यार प्रकृति!

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बारिश के बाद क्यों चुपचाप आज की सुबह,

ना बूंदों की रिमझिम फिर भी पत्ते हिलते बेवजह।

चिड़ियों को भी अंदेशा नहीं, चली गई है बरखा रानी।

गिले परों को बटोरे आशियां में, गा रही अपनी रागिनी।

भास्कर का भास क्यों अभी तक हुआ नहीं,

शायद उसको पता नहीं कि अब यहाँ बरखा नहीं।

कोयल की कूक जाने किस हूक में जा फंसी,

नैनों के आगे उसके छाई कैसी विभावरी।

नदियों की धारा क्यों अभी तक कम्पित है,

बूंदों की हलचल क्यों अभी ना थमी है।

मोरनी का नृत्य अब तक क्यों रुका नहीं,

पल्लवों के रिमझिम को समझा उसने बरखा यही।

जाने पर्वतों में कहाँ छुपी हैं ये हवाएं,

डर है भींग जाने का, बिन भास्कर इन्हें कौन सुखाए।

गीली सी हवाएं, गीली चारों दिशाएं,

गीला है हर सुर, अब इन्हें कौन चिताए।

सुना है शून्य और धरा भी शांत है,

जाने कैसा भ्रम है जैसे वर्षा इनके साथ है।

हे परमेश्वर! आज भ्रमित है क्यों तेरी सब कारीगरी,

सबको ये कैसा अंदेशा, वर्षा अभी भी बरस रही।

बरखा नहीं यहाँ कहीं, अब तो खुद को खोल लो,

क्यों छिपे सब आशियां में,

तुम बिन सूनी हैं फिज़ाएँ।

अग्यार सी चुपचाप प्रकृति को, अब तो कुछ मोल दो!


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