क्या कोई !
क्या कोई !
क्या कोई नाप सके पृथ्वी की नींव,
क्या कोई तान सके आकाश पर छतरी,
क्या कोई तोड़ सके तारों की लड़ियों को,
क्या कोई ला सके इंद्रधनुषी रंगों को,
क्या कोई मिला सके चारों दिशाओं को,
क्या कोई हिला सके आकाश की शक्तियों को,
क्या कोई सिखा सके उड़ना पंछियों को,
क्या कोई चला सके जीवित वृक्षों को,
क्या कोई पहुँचा सके संदेशा चाँदनी को,
क्या कोई बुला सके खड़की पे चन्द्रमा को,
क्या कोई सजा सके रंगीन तितलियों को,
क्या कोई बुझा सके जलते जुगनुओं को,
क्या कोई रचा सके सिंदूरी भोर सी रंगोली,
क्या कोई खींच सके हर रोज़ नभ पे नई चित्रकारी,
क्या कोई उगा सके ऊँचे हरियाली गगन में,
क्या कोई बहा सके नीले बादल ज़मीं पे,
क्या कोई बदल सके समयों और ऋतुओं को,
क्या कोई समझ सके तेरे तेज और पराक्रम को,
ये अद्भुत काम है तेरा,
जिसे बस तू ही करता है,
ऐ ख़ुदा! इसलिए ये इंसा तुझे
जिन्दा ख़ुदा कहता है।