तू चाहता है मैं भी फलवंत बनूँ
तू चाहता है मैं भी फलवंत बनूँ
किसी एक ऋतु में नहीं हर ऋतु में फलूं ;
शरीर के नहीं आत्मा के फलों में बढूँ,
जैसे तूने मुझपर कृपा की कृपालु मैं भी बनूँ;
तू दया का सागर और क्षमा की ख़ान है,
जैसे तूने मुझे माफ़ी दी माफ़ मैं भी करूँ;
प्रेम और आनंद का तू अथाह सागर है,
कुछ छोटी नदियाँ प्रेम की मैं भी बहाऊँ;
धर्य का तू सीनै पहाड़ है,
कुछ धीरज दिल में धरना मैं भी सीखूँ;
नम्रता और दीनता तुझमें बेमिसाल है,
कुछ नम्रता और दीनता धारण मैं भी करूँ;
तू चाहता है मैं भी फलवंत बनूँ,
किसी एक ऋतु में नहीं हर ऋतु में फलूं।
संसार के नहीं तेरे गुणों में बढूँ !
हाँ तुझ जैसा बनूँ !
