अभिमन्यु
अभिमन्यु
सुभद्रा का जाया ज्ञान कान्हा से पाया,
पार्थ जिसके पिता था वो सब से जुदा,
शौर्य से तेज से वक्ष जिसका बना,
व्यूह भेद ज्ञान का जिसने गर्भ में सुना।
कांतिमान शौर्यवान नवयुग का स्त्रोत था,
अभिमन्यु पांडु पक्ष में अमर ज्योत था,
अंत एक काल का नए युग का जनक,
महावीरों के मध्य प्रज्जवलित सम कनक।
पांडवों का ढाल अर्जुन का तीर था,
रणभूमि में सुकुमार सम ना कोई वीर था,
निर्भीक था यती रहा अदम्य शौर्य साहसी,
वीरता को नमन करता कर्ण सा महारथी।
चक्षु तीक्ष्ण तेज बाहु बल जगत समाहिता,
मनसु शील कर्म धीर यशस्वी सुदृढ़व्रता,
प्रयाण काल में गगन कर रहा जिसे नमन,
गौरवान्वित वो मां कि दिया वीर को जन्म।
उसके सामने टिके था मृत्यु में साहस नहीं,
काल ग्रास ले जिसे वो काल की सीमा नहीं,
वो काल से बंधा नहीं अनन्त था अगम्य था,
मृत्यु एक छद्म वो जीव था अदम्य था।
जिस चक्रव्यूह को भेदना कठिन बड़ा दुरूह था,
वो अभिमन्यु के लिए बाल्यकाल का एक खेल था,
सीमा उसकी थी नहीं रणभूमि से बंधा नहीं,
मात्र मरने मारने को वीर वो बना नहीं।
वो जीत हार से परे बलिदान का अध्याय था,
धर्म के रक्षार्थ मात्र धर्म का पर्याय था,
वो पांडवों और कौरवों के धर्म का स्वरूप था,
घात प्रतिघात से दूर शुद्ध रूप था।
वीर के प्रयाण में पक्ष दोनों मौन थे,
छल-द्वेष -घात-जीत -मात उत्तरदायी कौन थे,
लहू की हर बूंद का ऋण मही में रह गया,
दृश्य अंतिम देख हर नयन से अश्रु बह गया।
शोकाकुल थे पक्ष दोनों दुःखी थे स्तब्ध थे,
इस तरह की जीत से वीर सब असज्ज थे,
पर युद्ध में सही गलत भेद का क्या भाव है,
मरना है या मारना ये युद्ध का स्वभाव है।
अधर्म के मन में धर्म बीज एक दे गया,
धर्म का एक अंश संग में लहू के बह गया,
आने वाले युग की नींव रखी उस एक वीर ने,
बन नदी से मिल गया वृहत समुद्र क्षीर में।
