कोहरा
कोहरा
धूप का आलिंगन
पा कर पिघल
जाता है कोहरा
जैसे उसका ही
इंतजार कर रहा हो।
मिलन को तरस रहा हो
अपने आप को धुप में
आत्मसात करने को
मचल रहा हो
जैसे कोई वल्लरी।
वृक्ष से गले मिलकर
धन्य हो जाती है
जैसे कोई प्रेमिका
अपने प्रेमी से मिलकर
तृप्त हो जाती है।
वैसे ही रात भर
की तड़पन
को भूलकर धुप
से मिलकर कोहरा
भी अपने को
तृप्त कर छँट जाता है।
ओर धूप उसे अपने में
समा लेती है
यही नियति है
यही मान कर
कोहरा सिमट
जाता है
अपने आप को
ख़त्म कर लेता है।
