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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - १२९ ; चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश

श्रीमद्भागवत - १२९ ; चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश

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शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित 

राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त हो 

पास पड़े हुए मृत पुत्र के 

खुद भी मुर्दे के समान वो।


अंगिरा और देवर्षि नारद 

समझाने लगे, राजेंदर जिसका

शोक कर रहे, वो पहले जन्म में 

या इस जन्म में तुम्हारा कौन था।


पूछें वो चित्रकेतु को कि 

तुम भी कौन हो उसके 

उससे क्या सम्बन्ध रहेगा 

तुम्हारा अगले जन्मों में।


मिलन और बिछोह प्राणीओं का 

होता रहता समय के प्रवाह में 

प्राणी उत्पन्न होते प्राणीओं से 

और फिर वो नष्ट हो जाते।


प्रेरित हो भगवान की माया से

ये सब आते इस जगत में 

इस जगत के चराचर प्राणी 

जन्म से पहले वो नहीं थे।


मृत्यु के पश्चात भी वो रहे न 

इससे ये सिद्ध है होता 

के नही है अस्तित्व 

इस समय भी कोई उनका।


क्योंकि सत्य वास्तु कोई हो 

सब समय एक सी रहती 

बस भगवान ही समस्त प्रनिओं के अधिपति 

जन्म मृत्यु का विकार उनमें नहीं।


सत्य तो एकमात्र परमात्मा 

अत: शोक करना उचित नहीं 

एक बीज के द्वारा जैसे 

दुसरे बीज की उत्पत्ति होती।


वैसे ही माता पिता की देह से 

उत्पन्न होती है देह पुत्र की 

जीव की दृष्टि से ये सब देही हैं 

ब्रह्मदृष्टि से केवल शरीर ही।


अंगिरा, नारद के समझाने पर 

उन दोनों से राजा बोले ये 

अवधूत वेश में छिपकर आप 

कौन हैं दोनों ये बतलाइये।


कोई सिद्धेश्वर, ऋषि, मुनि 

जैसे ज्ञानदान करने के लिए ही 

पृथ्वी पर हैं विचरण करते 

आप भी उनमें से क्या कोई।


मंद बुद्धि मैं एक पशु हूँ 

फंसा हुआ विषयभोगों में 

अज्ञान के अंधकार में डूबा 

निकालिये ज्ञान से मुझे यहाँ से।


अंगिरा बोले, हे राजन 

पुत्र के लिए लालायत थे जिस समय 

तब मैंने तुम्हे पुत्र दिया था 

महर्षि अंगिरा हूँ मैं।


और तुम्हारे सामने खड़े जो 

देवऋषि नारद जी हैं ये 

अनुग्रह करने के लिए तुमपर 

हम लोग यहाँ आये हैं।


हम लोगों ने जब ये देखा 

पुत्रशोक में डूब रहे हो 

सोचा कि तुम भगवान के भक्त 

शोक करने योग्य नहीं हो।


हे राजन, भगवान् भक्त जो 

और भक्त हैं ब्राह्मणों के 

शोक नहीं करना चाहिए 

उन्हें किसी भी अवस्था में।


पहले तुम्हारे पास आया जब 

तुम्हारे ह्रदय में पुत्र की लालसा 

इसीलिए तुम्हे ज्ञान न देकर 

मैंने तुम्हे पुत्र ही दिया।


अब तुम स्वयं ही अनुभव कर रहे 

कितना दुःख होता पुत्र वालों को 

यही बात लागू है होती 

स्त्री, घर, धन और सम्पतियों को।


ये सभी ही कारण हैं 

शोक, मोह, भय और दुःख के 

कल्पित, मिथ्या ये, एक क्षण में दिखकर 

दुसरे क्षण में लुप्त हो जाते।


ये सर्वदा असत्य हैं 

इसलिए मन को विषयों से हटाओ 

अपने वास्तविक रूप का विचार कर 

परमात्मा में स्थित हो जाओ।


देवऋषि नारद कहें, ग्रहण करो मुझसे 

ये मन्त्रोपनिषद एकाग्र चित से 

भगवान संकर्षण के दर्शन होंगे 

सात रात इसे करने से तुम्हें।


प्राचीन काल में शंकरादि ने 

आश्रय लिया था संकर्षण देव का 

उनकी उस महिमा को प्राप्त किया 

जिसके समान और कोई महिमा ना।


तुम भी अब शरण में जाकर 

शीघ्र ही उन भगवान के 

चित लगाकर चरणकमलों में 

परमपद को प्राप्त कर लोगे।










 




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