श्रीमद्भागवत - ३०४ः वर्णाश्रमधर्म निरूपण
श्रीमद्भागवत - ३०४ः वर्णाश्रमधर्म निरूपण
उद्धव जी ने कहा, हे कृष्ण
आप मुझे अब यह बतलाइए
कि सभी मनुष्य किस प्रकार से
अपने धर्म का अनुषठान करें।
जिससे कि उनकी भक्ति हो जाए
आप के इन चरणकमलों में
परमधर्म का उपदेश जो दिया
आपने ब्रह्मा को हंस रूप में।
प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक
इस धर्म के हैं आप ही
मधु दैत्य को मार जैसे पूर्व में
आपने वेदों की रक्षा की थी।
वैसे ही अपने इस धर्म की
आप अब तो रक्षा कीजिए
लीला कर आप चले जाएँगे
धर्म ये तब तो लोप हो जाए।
फिर कौन बताएगा इसे
मर्मज्ञ आप समस्त धर्मों के
इसलिए वर्णन करें इस धर्म का
आपकी भक्ति जो प्राप्त करा दे।
शुकदेव जी कहें, हे, परीक्षित
उद्धव पर प्रसन्न हो कृष्ण ने कहा
जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ
पहला सतयुग चल रहा था।
उस समय सभी मनुष्यों का
“ हंस” नामक वर्ण एक ही
और उस युग में जन्म से ही
कृतकृत्य रहते लोग सभी।
उस युग को हंसयुग भी कहते
वेद केवल एक ही प्रणव था
तपस्या, शोच, दया, सत्वरूप से युक्त
मैं ही वृषभरूप धारी धर्म था।
उस समय परमतपस्वी मुझ हंसरूप
परमात्मा की उपासना करते थे
सतयुग के बाद त्रेता युग आया
त्रयीविद्या प्रकट हुई मेरे हृदय से।
ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद रूप ये विद्या
मैं भी प्रकट हुआ इसी से
होता, अधर्वयु और उद्ग़ाता के कर्मरूप
तीन भेद वाले यज्ञ के रूप में।
विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण
भुजा से क्षत्रिय प्रकट हुए
जाँघ से वैश्य की उत्पत्ति हुई
शुद्र की उत्पत्ति हुई चरणों से।
स्वभाव अनुसार और आचरण से उनके
उनकी ये पहचान है होती
उद्धव जी, विराट पुरुष भी मैं ही
इसीलिए मेरे ही ऊरुस्थल से ही।
गृहस्थआश्रम की उत्पत्ति हुई
ब्रह्मचर्य आश्रम की हृदय से
वानप्रस्थआश्रम वक्षस्थल से और
सन्यासआश्रम की उत्पत्ति मस्तक से।
सब वर्ण और आश्रमों के मुताबिक़
उन पुरुषों के स्वभाव भी
उत्तम, मध्यम और अघम हो गए
जन्म स्थानों के अनुसार ही।
उत्पन्न हुए जो उत्तम स्थानों में
स्वभाव उत्तम ही हुआ उनका
अधम स्थानों में जो उत्पन्न हुए
स्वभाव उनका अधम हुआ था।
शम, दम, पवित्रता, संतोष
क्षमाशीतला, सीधापन, मेरी भक्ति
दया और सत्य आदि ये
स्वभाव ब्राह्मण वर्णों के ही।
तेज, बल, धैर्य, वीरता, शहनशीलता
उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता
ब्राह्मण भक्ति और ऐश्वर्य
स्वभाव ये क्षत्रियवर्ण का।
आस्तिकता, दानशीतला, दम्भहीनता
ब्राह्मणों की सेवा करना मन से
धनसंचय से संतुष्ट ना होना
ये सब स्वभाव वैश्य वर्ण के।
निष्कपटभाव से सेवा करना
ब्राह्मण, गो, देवताओं की
इसी से जो संतुष्ट रहता है
स्वभाव शुद्रवर्ण का ये ही।
अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना
ईश्वर, परलोक की परवाह ना करना
झूठ मूठ झगड़ना, काम, क्रोध, तृष्णा
ये स्वभाव है अंत्ययजों का ।
चारों वर्णों और आश्रमों के लिए
साधारण धर्म यही है कि
मन, वाणी और शरीर से
हिंसा ना करे कभी भी।
सत्य पर दृढ़रहे, चोरी ना करे
काम, क्रोध और लोभ से बचे
प्राणियों को प्रसन्नता हो और भला उनका
जिनको करने से , वही वो करे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सभी
गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से
यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वित्य जन्म
प्राप्त करके गुरुकुल में रहें।
अपनी इंद्रियों को वश में रखें
वेद का अध्ययन करें आचार्य से
उसके अर्थ का विचार करें वो
मेखला, मृगचर्म, दण्ड धारण करें।
पालन करे पूर्ण ब्रह्मचर्य का
पवित्रता के साथ ब्रह्मचारी वो
अग्नि, सूर्य, आचार्य, ब्राह्मण गुरु आदि
सबकी उपासना करे एकान्तचित हो।
वृद्धजन, देवताओं की भी उपासना
तथा सायंकाल और प्रातः काल में
मौन होकर संध्योपायन और
गायत्री का जाप उसे करना चाहिए।
मेरा ही स्वरूप समझे आचार्य को
तिरस्कार ना करे उसका कभी
क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता
तत्पर रहे आज्ञा में आचार्य की।
जबतक विद्याध्ययन समाप्त नही होता
दूर रहे वो सब भोगों से
गुरुकुल में निवास करे और
ब्रह्मचर्यव्रत खंडित ना होने दे।
यदि ब्रह्मचारी का विचार हो कि
ब्रह्मलोक में जाऊँ मैं, तो
आजीवन नैष्ठिक ब्राह्मण व्रत
ग्रहण कर लेना चाहिए उसको।
और वेदों के स्वाध्याय के लिए
अपना सारा जीवन ही
समर्पित कर देना चाहिए उसको
सेवा में अपने आचार्य की।
ब्रह्मतेज से सम्पन्न हो वो ऐसे
सारे पाप नष्ट हो जाते
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, सन्यासी को चाहिए
स्त्री को दूर से ही त्याग दे।
शोच, आचमन, स्नान, सरलता
जप, तीर्थसेवन, संध्योपायन
समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना
मन, वाणी और शरीर का संयम।
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी
एक सा नियम ये सबके लिए
और भी कुछ नियम हैं जो
सब आश्रमों के लिए हैं, जैसे।
ना छूना अस्पर्शयों को
अभक्ष्य वस्तुओं को ना खाना
और जिससे बोलना ना चाहिए
उस व्यक्ति से ना बोलना।
नैष्ठिक ब्राह्मण और ब्राह्मण इन
नियमों का पालन करने से
अग्नि समान तपस्वी हो जाता
कर्म संस्कार भस्म हो जाते उसके।
अंतकरण शुद्ध हो जाता
मेरा भक्त हो, मुझे प्राप्त करे
और उद्धव यदि नैष्ठिक ब्राह्मण
बनने की इच्छा ना हो उसे।
गृहस्थआश्रम में प्रवेश करना चाहता
तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके
आचार्य को दक्षिणा दे, उसकी अनुमति से
सनातक बनकर ब्रह्मचर्य छोड़ दे।
फिर गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ
आश्रम में प्रवेश करे वो
सन्यास भी ले सकता है
यदि व्यक्ति ब्राह्मण हो तो।
यदि गृहस्थआश्रम स्वीकार करे
विवाह करे कुलीन कन्या से
यज्ञ यज्ञादि, अध्यापन का अधिकार है
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को समान रूप से।
परंतु अधिकार केवल ब्राह्मण को
दान लेने, पढ़ाने, यज्ञ करने का
उद्धव, अत्यन्त दुर्लभ ही है
शरीर मिलना एक ब्राह्मण का।
ब्राह्मण जन्म भोग भोगने के लिए नही
तपस्या, कष्ट भोगने के लिए ये
और अंत में इसी शरीर से
मोक्ष प्राप्ति करने के लिए।
जो ब्राह्मण वन में रहकर
अपने धर्म का पालन करता
अपना शरीर, प्राण, अंतकरण
और आत्मा मुझे समर्पित कर देता।
आसक्ति नही रखता और कहीं
वह बिना सन्यास लिए ही
मेरा परमपद प्राप्त कर ले
अनन्य भक्ति मेरी प्राप्त होती।
राजा जो माता पिता की तरह
उद्धार करे प्रजा का कष्ट से
उन्हें बचाए और रक्षा करे
अपने आप से अपना उद्धार करे।
ऐसे रक्षा प्रजा की करे जो
वह राजा पापों से मुक्त हो
अंत समय स्वर्गलोकमें जाता
इंद्र के साथ में सुख भोगे वो।
आपत्ति काल में ब्राह्मण भी
वृत्ति से वैश्य या क्षत्रिय की
अपना काम चला सकता है
और ऐसे ही जो क्षत्रिय वो भी।
आपातकाल में वयोपारआदि कर ले
परंतु नीचों की सेवा जो
श्वानवृत्ति जिसको हैं कहते
उसका आश्रय कभी ना ले वो।
अपना जीवन निर्वाह कर सकता
वैश्य भी आपत्ति में सेवा से
और शुद्र भी चटाई आदि बुनकर
चारुवृत्ति का आश्रय ले ले।
परंतु उद्धव, ये सारी बातें
बस आपत्तिकाल के लिए
आपत्ति का समय बीत जाने पर
छोड़ देना चाहिए उसे ये।
गृहस्थ पुरुष को चाहिए कि
वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ करे
तर्पणरूप पित्तृयज्ञ और
ईश्वर रूप देवयज्ञ करे।
भूतयज्ञ और अन्नदान रूप
अतिथियज्ञ आदि के द्वारा ही
प्रतिदिन पूजा करे वो ऋषि
देवता, पित्तर, मनुष्य आदि की।
गृहस्थी कुटुम्ब में आसक्त ना हो
सभी वस्तुएँ नाशवान जीवन में
स्वर्गादि परलोक के भोग भी
नाशवान वैसे ही सब वे।
स्त्री, पुत्र, भाई बन्धु का सम्बन्ध
बस शरीर के रहने तक रहता
गृहस्थ को इस प्रकार विचार कर
नही चाहिए गृहस्थी में फँसना।
शरीर आदि में अहंकार और
घर आदि में ममता नही करता जो
घर गृहस्थी के ये फंदे
कैसे बांध सकते हैं उसको।
पुरुष गृहस्तोचित कर्मों द्वारा
मेरी आराधना करे, घर में ही रहे
और यदि पुत्रवान हो तो
वानप्रस्थ या सन्यास ग्रहण करे।
घर गृहस्थी में आसक्त लोग जो
पड़ जाते मैं, मेरे के फेर में
विषय भोगों में पड़कर पुरुष वो
कभी भी तृप्त नही होते।
उन्हीं में मूढ़ बुद्धि वो
अपना जीवन खो बैठते
और घोर तमोमय नरक में
चले जाते, जब मरते हैं वे।
