वचन द्रोणाचार्य का
वचन द्रोणाचार्य का
पांडवों की शिक्षा - दीक्षा के लिए गुरु द्रोणाचार्य को इसका दायित्व सौंपा गया ( और इसी के साथ शुरु हुई गरूओं की शिष्यों के घर जा कर शिक्षा देने की परंपरा ) अपने शिष्यों को पा गुरु द्रौण संतुष्ट थे पांडव भी गुरु द्रोण का सानिध्य पा कर प्रसन्न थे खास कर अर्जुन , शिक्षा प्रारम्भ हो चुकी थी पांडव बड़ी लगन से अपने गुरु के आदेश का पालन करते लेकिन अर्जुन की लगन देख गुरु द्रोण अचंभित थे तीरंदाजी में उसके लक्ष्य साधने की अद्भुत क्षमता और फिर अचूक निशाना प्रसंशनीय था ।
एक दिन गुरु द्रोण पेड़ पर लगे पत्तों मे तीर से छेद करने का अभ्यास करा रहे थे कि अभ्यास कराते - कराते गुरु के स्नान का वक्त हो गया और वो स्नान के लिए चले गये अर्जुन को छोड़ चारो भाई आपस में वार्ता करने लगे इधर अर्जुन ने देखा गुरु ने कोई मंत्र जमीन पर लिख रखा है अर्जुन उस मंत्र को पढ़ उसको साधने में लग गये , गुरू द्रोण स्नान कर वापस आये तो उन्होने देखा पत्तियों पर पहले से हुये एक छेद के बगल में दूसरा छेद भी हो गया था गुरु के लिए अत्यंत आश्चर्य की बात थी की अभी तो उन्होंने किसी को सिखाया नही फिर किसने ये छेद कर दिया ? तेज आवाज में गुरू द्रोण ने पांडवों से पूछा " किसने किया ये ? " सभी सर झुकाये खड़े थे गुरू द्रोण के दुबारा पूछने पर डरते हुये अर्जुन ने स्वीकार किया की उसने किया है । गुरु द्रोण अर्जुन से बोले " मैने तो तुम्हें अभी मंत्र का प्रयोग बताया ही नही , तब अर्जुन ने जमीन पर लिखे मंत्र को दिखाते हुये बताया की इसी को पढ़ कर उसने मंत्र साध लिया । गुरू के आश्चर्य की सीमा न थी सहसा उनके मुख से आशीर्वाद स्वरूप निकाला " अर्जुन तुम इस संसार के सर्वश्रेष्ठ शिष्य हो और संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर तुमको मैं बनाऊँगां ये मेरा वचन है " अंधे को क्या चाहिए " दो आँख " और वो दो आँख गुरु द्रोण के रूप में अर्जुन को प्राप्त हो चुकी थी ।
समय का चक्र अपनी रफ्तार पे था, गुरु द्रोण पांडवों को तीरंदाजी का अभ्यास करा रहे थे उनके आगे - आगे एक कुत्ता भी चल रहा था अचानक से कुत्ता गायब हो गया और उसके भौकने की आवाज भी बंद हो गई थी , थोड़ा आगे बढ़ने पर कुत्ता दिखाई दिया लेकिन आश्चर्य कुत्ते का मुँह तीरों से भरा था सबसे पहले अर्जुन ने कुत्ते के मुख से तीरों को बाहर निकला सब आश्चर्य चकित थे कुत्ते के मुख में एक खरोंच तक नही आयी थी और सबके मन में एक सवाल था क्योंकि अर्जुन उनके साथ था तो फिर ये अद्भुत कार्य किया किसने ? तभी एक भील बालक वहाँ आया उसके हाथ में तरकश और तीर था गुरु द्रोण ने पूछा ये तुमने किया ? बालक ने हाँ में सर हिला दिया गुरु बोले क्या नाम है तुम्हारा और कौन शिक्षा देता है तुम्हें ? तुम्हारे गुरु कौन हैं ? उनके सवालों के जवाब में बालक ने बड़े आदर से प्रणाम करते हुये अपना नाम नीषाद पुत्र एकलव्य बताया तथा उनको थोड़ी दूर ले कर गया और एक मिट्टी की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुये बोला " ये हैं मेरे गुरु " सब आवाक् थे मूर्ती गुरु द्रोण की थी , सबके चेहरे पर प्रश्न चिन्ह देख कर उसने उसका समाधान करते हुये कहा कि "गुरु देव मुझे क्षमा किजिये आप को याद नही होगा कुछ समय पहले मैं आपसे शिक्षा लेने के लिए आपके आश्रम गया था परंतु आपने मेरी याचना अस्वीकार कर दी थी , जब मुझे लगा की मुझ भील बालक को आप शिक्षा नही देंगे तो मैने आपकी इस मूर्ती का निर्माण किया और इनके सामने अभ्यास करने लगा!"
उसी क्षण गुरु द्रोण को अर्जुन को दिये वचन की याद आई और सोचा " क्या इस निषाद पुत्र की वजह से मेरा वचन पूरा नही हो पायेगा ? नही कदापि नही मेरे दिये वचन के मार्ग में कोई नही आ सकता तो फिर इस निषाद पुत्र की क्या बिसात , तेज दिमाग ने उनका साथ दिया और तुरन्त उन्होंने सामने खड़े एकलव्य से कहा अगर मुझे गुरु माना है तो मुझे मेरी गुरु दक्षिणा दो , गुरु द्रोण का इतना कहना था की बालक अपने घुटनों के बल बैठ गया और हाथों को जोड़ कर बोला " जो आज्ञा गुरुदेव ! बोलीये गुरू दक्षिणा में आप क्या स्वीकार करेगें ? गुरू द्रोण तो जैसे इसी क्षण का इंतज़ार कर रहे थे तुरन्त उनके मुख से उनके दिल की बात निकल गई " मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए " अर्जुन ने आश्चर्य और प्रश्न सूचक दृष्टि से गुरु द्रोण की तरफ देखा इतनी देर में एकलव्य ने पास पड़ा हसुआ उठाया और अगले ही पल अपना अंगूठा गुरु द्रोण के चरणों में रख कर बोला गुरूदेव दक्षिणा स्वीकार किजिए...सब हतप्रभ खड़े थे ।
अर्जुन अचानक से पलटा और द्रोणाचार्य से बोला ये क्या किया गुरूदेव ? अगर एकलव्य अपना अंगूठा गुरु दक्षिणा में दे सकता है तो मैं क्यों नही...क्या आप मुझे अपना शिष्य नही मानते ? जितने अधिकार से आपने एकलव्य से गुरु दक्षिणा माँगी वो अधिकार आपने मुझसे क्यों नही दिखाया ? क्या मैं इस योग्य नही ये कहता हुआ अर्जुन वहीं ज़मीन पर बैठ गया , द्रोणाचार्य निरूत्तर थे झुक कर अर्जुन को उठाया और पलट कर आश्रम की ओर चल दिये । इधर एकलव्य ने बिना कहे गुरु के मन की बात समझ ली थी की गुरूदेव क्यों और किसके लिए उसके अंगूठे को गुरू दक्षिणा के रूप में माँगा । उधर अपनी कुटिया में द्रोणाचार्य अपने वचन को पूर्ण करने की प्रक्रिया में अपने आगे बढ़े हुए कदम में अपनी जीत देख रहे थे ।
