श्रीमद्भागवत -३०१ऽ भक्तियोग की महिमा तथा ध्यान विधि का वर्णन
श्रीमद्भागवत -३०१ऽ भक्तियोग की महिमा तथा ध्यान विधि का वर्णन
उद्धव जी ने पूछा, श्री कृष्ण
ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याण के
अनेकों साधन बतलाते हैं और
सभी श्रेष्ठ अपनी अपनी दृष्टि से।
आपने अभी भक्तियोग को ही
निरपेक्ष, सवतंत्र साधन बतलाया
क्योंकि इसी से आसक्तियाँ छोड़कर
मन आपमें तन्मय हो जाता।
भगवान कृष्ण कहें, प्रिय उद्धव
वेदवाणी यह जो मैंने तुमसे कही
समय के फेर से प्रलय आने पर
ये तो लुप्त हो गयी थी।
फिर जब सृष्टि का समय आया
अपने संकल्प से ही तब मैंने
ब्रह्मा को उपदेश दिया इसका
भागवत धर्म का सही वर्णन इसमें।
ब्रह्मा जी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र
स्वयंभूमनु को उपदेश दिया इसका
भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलसत्य
और कृतु ने उनसे ये ग्रहण किया।
इन सात प्रजापति ब्रह्मऋषियों की
संतान देवता, दानव, मनुष्यों ने
प्राप्त किया इस वेदवाणी को
अपने पूर्वज इन ब्रह्मऋषियों से।
सभी अपनी प्रकृति के अनुसार ही
भिन्न भिन्न अर्थ ग्रहण करें इसका
प्रिय उद्धव, सभी की बुद्धि को
मोहित कर रही मेरी माया।
इसी से अपने अपने कर्म संस्कार और
अपनी अपनी रुचि के अनुसार ही
एक नही अनेकों बतलाते
आत्म कल्याण के साधन भी।
पूर्वभीमांशक धर्म को और
साहित्य चार्य बतलाते यश को
कामशास्त्री काम को और
योगवेत्ता सत्य, शम - दमादि को।
दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को बतलाते
त्यागी बतलाते हैं त्याग को
भोग को ही मनुष्य जीवन का
परम लाभ बताएँ, लोकायतिक जी।
यज्ञ, तप, दान, व्रत, तपस्या, नियम
योगी पुरुषार्थ बतलाते इनको
परंतु ये तो सभी कर्म हैं और
लोक मिलते इनके फल से जो।
वो उत्पत्ति और नाश वाले हैं
कर्मों का फल जब समाप्त हो जाए
अंतिम गति घोर अज्ञान उनकी
अंत में दुःख ही मिलता है उनसे।
विभिन्न साधनों से जो सुख भी मिलता
तुच्छ है, नगण्य है वह भी
इसलिए नही पड़ना चाहिए
इन साधनों के फेर में कभी।
प्रिय उद्धव, सब और से निरपेक्ष
और बेपरवाह हो गया जो
किसी भी कार्य या फल आदि की
आवश्यकता नही रखता है वो।
मुझको समर्पित कर चुका अपने को
परमानन्द स्वरूप हूँ स्वयं मैं ही
सफ़ूरित होने लगता हूँ मैं
उसकी आत्मा के रूप में ही।
जिस सुख का अनुभव करता इससे वो
वह सुख उन प्राणियों को
किसी प्रकार मिल सकता hai
स्वभाव से विषय लोलुप जो।
जो अकिंचन है और अपनी इंद्रियों पर
विजय प्राप्त करने के बाद में
शान्त और समदर्शी हो गया
मेरे सानिध्य का अनुभव करके।
संतोष का अनुभव करता है
और उसके लिए सदा सर्वदा
आकाश का एक एक कोना
आनंद से है भरा हुआ।
जिसने अपने को मुझे सौंप दिया
वह मुझे छोड़कर, ना तो
ब्रह्मा का घर ही चाहता
ना देवराज इंद्र का घर वो।
सार्वभोम सम्राट बनने की
इच्छा ना हो उसके मन में
श्रेष्ठ है जो स्वर्ग से भी
उस रसातल का स्वामी भी ना होना चाहे।
भोग की बड़ी बड़ी सिद्धियाँ और
मोक्ष तक की अभिलाषा भी ना करता
उद्धव, तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त ही
मुझको प्रिय हैं सबसे ज़्यादा।
उनसे प्रिय मुझे मेरे पुत्र ब्रह्मा
और आत्मा शंकर भी नहीं
भाई बलराम , अर्धांगनी लक्ष्मी जी
औरमेरा अपना आत्मा भी नहीं।
जिसे किसी की अपेक्षा ना हो
जगत के चिंतन से उपरत हो
जो मेरे ही चिंतन में
तल्लीन रहता है, मनुष्य वो।
और राग द्वेष ना रखकर
समान दृष्टि रखे सबके प्रति
उस महात्मा के पीछे पीछे
घूमा करता मैं यह सोचकर कि।
उसके चरणों की धूल उड़कर
थोड़ी मेरे ऊपर पड़ जाए
और मैं पवित्र हो जाऊँ
इन संतों की चरणधूलि से।
संग्रह परिग्रह से रहित है जो
ममता ना रखे शरीर आदि में भी
कामनाओं से उपरत हो चुका
चित रंग में रंगा मेरे ही।
अपनी उदारता के कारण उसका
दया, प्रेम का भाव सभी के प्रति
किसी प्रकार की कामना जिसकी
बुद्धि का स्पर्श नही कर पाती।
मेरे परमानंद के स्वरूप का
अनुभव होता जो उन लोगों को
कोई जान ना सके उसे क्योंकि
वो तो निरपेक्ष को ही प्राप्त हो।
मेरा भक्त जो अभी जितेंद्रिय नही हुआ
सांसारिक विषय बाधा पहुँचाते उसे
प्रायः वो विषयों से पराजित नही होता
मेरी भक्ति के प्रभाव से।
मेरी भक्ति समस्त पाप राशि को
पूर्णत्य जला डालती उसके
योग, जप तप ये सारे
उतने समर्थ ना मेरी प्राप्ति के लिए।
दिन प्रतिदिन है बढ़ने वाली
अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ये
संतों का प्रियतम, आत्मा मैं हूँ
पकड़ में आऊँ बस इसी भक्ति से।
यह ही एक उपाय है बस
प्राप्त करने का जो मुझे
जन्म से ही चाण्डाल हैं जो
उन्हें भी ये पवित्र कर दे।
इस के विपरीत मनुष्य जो
वंचित हैं मेरी भक्ति से
उनके चित को धर्म, तपस्या, विद्या भी
असमर्थ हैं पवित्र करने में।
जब तक शरीर पुलकित ना हो जाए
चित पिघलकर गदगद नही होता
आनन्द के आँसू छलकें ना आँखों से
चित भक्ति में उतराने नही लगता।
भक्ति की बाढ़ ना आती
चित डूब ना जाए उसमें
कोई सम्भावना नही है
शुद्ध होने की तबतक उसके ॥
जिसकी वाणी प्रेम से गदगद हो
चित पिघलकर एक और है बहता
एक क्षण के लिए भी जिसका
रोने का ताँता नही हटता।
परंतु कभी कभी ऐसे ही
लगता वो खिलखिलाकर हंसने भी
लाज छोड़कर ऊँचे स्वर में
गाने लगे और नाचने लगे कभी।
ऐसा भक्त ना केवल अपने को
बल्कि संसार को पवित्र कर देता
भक्ति से कर्मवासनाओं से मुक्त हो
मुझको वो प्राप्त हो जाता।
क्योंकि वास्तविक स्वरूप मैं उसका
परमपावब मेरी लीला कथा से
ज्यों ज्यों मन का मैल धूलता जाता
वास्तविक तत्व के दर्शन होते।
निरन्तर विषय चिंतन करता जो
चित विषयों में फँस जाता उसका
और जो मेरा स्मरण करता उसका
चित मुझमें तल्लीन ही जाता।
इसलिए दूसरे साधनों, फलों का
चिंतन छोड़ो तुम, क्योंकि मेरे
अतिरिक्त और कुछ भी नही है
चित शुद्ध करो मेरे चिन्तन से।
पूरी तरह एकाग्रता से
चित को लगा लो तुम मुझमें ही
संयमी पुरुष को चाहिए कि
चिंतन करे मेरा एकान्त में ही।
उद्धव जी ने पूछा, भगवन
मुमुक्षु पुरुष किस रूप में
किस प्रकार और किस भाव से
आपका सदा ध्यान करे।
भगवान कृष्ण कहें, प्रिय उद्धव
आसन पर बैठकर प्राणायाम से
नाड़ियों का शोधन करके
इंद्रियों को जीतना चाहिए।
हृदय में ओंकार का चिंतन करे
जिससे प्राणवायु वश में हो जाता
हृदय को सोचे कि एक कमल है
और उसकी आठ पंखुडियाँ।
उसके बीचो बीच सुकुमार कर्णिका
अत्यन्त सुकुमार गद्दी के जैसे
क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा
अग्नि का न्यास करना चाहिए।
अग्नि के अंदर ही फिर
मेरे रूप का स्मरण करे
बहुत ही मंगलमय है
मेरा ये रूप ध्यान के लिए।
मेरा मुखकमल बहुत सुंदर है
शांति टपकती रोम रोम से
मुख पर मुस्कान की अनोखी छटा और
घुटनों तक लंबी चार भुजाएँ।
कानों में मकराकृत कुण्डल
झिलमिल झिलमिल हैं कर रहे
मेघ समान श्यामल शरीर पर
पीताम्बर फहरा रहा ये।
श्री वत्स और लक्ष्मी जी का चिन्नह
वक्षस्थल पर है दाएँ बाएँ
शंख, चक्र, गदा, और पद्म
हाथों में धारण किए हुए।
वनमाला लटक रही गले में
कोसतुभमनी भी जगमगा रही
चरणों में नूपुर शोभा दे रहे
सज रहे किरीट, कंगन, करधनी।
सुंदर है एक एक अंग मेरा
मुख पर चितवन है प्यार भरी
कृपा प्रसाद की वर्षा ये कर रही
और मेरे इस स्वरूप का ही।
ध्यान करे मन में अपने
मन लगाए एक एक अंग में
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि
इंद्रियों को विषयों से खींच ले।
विषयों से अलग हों जब इंद्रियाँ
मन को भी मुझमें लगा दे
मेरे सारे अंगों का ध्यान कर
फिर अपने चित को स्थिर करे।
मेरे मुख का ही ध्यान करे
और जब चित इसमें ठहर जाए
तब मुझे वहाँ से उठाकर
स्थित कर दे वो आकाश में।
आकाश का भी चिन्तन त्याग फिर
मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जाए
और मेरे सिवा किसी वस्तु का
वह तब चिन्तन ना करे।
जब चित समाहित हो जाए ऐसे
तब जैसे एक ज्योति दूसरे में
मिलकर एक हो जातीं वैसे ही
अनुभव करता वो अपने में मुझे।
और मुझ सर्वात्मा में
अपने को अनुभव करता वो
भ्रम मिट जाता सब उसका और
तत्वज्ञान की प्राप्ति हो उसको।