श्रीमद्भागवत -१४७; गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार
श्रीमद्भागवत -१४७; गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार
राजा युधिष्ठर पूछें, नारद जी
गृहासक्त गृहस्थ जो मेरा जैसा हो
किस साधन से प्राप्त कर सकता
बिना विशेष परिश्रम के, इस पद को।
नारद जी कहें, हे युधिष्ठर
मनुष्य काम करे गृहस्थ आश्रम के
परन्तु करदे इन्हें प्रभु को समर्पित
और महात्माओं की सेवा के।
कभी विरक्त पुरुषों में निवास करे
भगवान की लीला, कथा का पान करे
ज्यों ज्यों बुद्धि शुद्ध हो जाये
त्यों त्यों सब कुछ छोड़ता चले।
शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि की
आसक्ति वो स्वयं छोड़ दे
क्योंकि छूटने वाला ही है
एक न एक दिन सब कुछ ये।
घर और शरीर की सेवा
करनी चाहिए आवश्यकता अनुसार ही
भीतर से विरक्त रहे वो
बाहर से साधारण पुरुष जैसा ही।
वर्षादि से उत्पन्न अन्नादि
सुवर्ण अदि जो पृथ्वी से उत्पन्न हों
अकस्मात प्राप्त होने वाले द्रव्य अदि
और सभी प्रकार के धन जो।
ये सब भगवान् के दिए हुए हैं
बुद्धिमान को ये समझाना चाहिए
प्रारब्ध के अनुसार उपयोग करे उनका
और उनको वो संचय न करे।
साधु सेवा आदि में लगाये उसे
उसका अधिकार केवल उतने पर
जितने में उसकी भूख मिट जाये
न है इससे अधिक संपत्ति पर।
चोर है वो और दंड मिलना चाहिए
अपनी माने जो इससे अधिक संपत्ति को
पुत्र के ही समान वो समझे
हरिण, ऊठ और पक्षी आदि को।
धर्म, अर्थ और काम के लिए
बहुत कष्ट न उठाना चाहिए
देश, काल, प्रारब्ध के अनुसार
मिल जाये जो, संतोष करे उसमें।
समस्त भोग सामग्रीओं को अपनी
यथायोग्य बांटकर काम में लाये
अपनी स्त्री पर भी आसक्ति न रखे
ममता को भी हटा लेना चाहिए।
प्रारब्ध से प्राप्त और पंचयज्ञ से बचे
अन्न से ही जीवन निर्वाह करे
जो पुरुष ऐसा करते हैं
संतों का पद प्राप्त करते।
प्रतिदिन देवता ऋषि, मनुष्य और
पितृगण तथा आत्मा का पूजन करे
माता, पिता, पितामह, मातामह का
आश्विन मास में वो श्राद्ध करे।
शुभ संयोग में स्नान, जप, होम, व्रत
तथा पूजा करे देवता, ब्राह्मणों की
दानादि शुभ कर्म भी करे
मांगलिक काम करे वो कोई जब भी।
हे युधिष्ठर अब मैं वर्णन करूं
उन स्थानों का जो पवित्र हों
सबसे पवित्र वो देश है
जिसमें सत्पात्र मिलते हों।
भगवान की जहाँ प्रतिमाएं हों
निवास करते हों ब्राह्मण परिवार वहां
पुराणों में प्रसिद्द गंगादि नदियां हों
पुष्कर आदि सरोवर हों जहाँ।
सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित क्षेत्र
कुरुक्षेत्र, प्रयाग, गया, काशी आदि
बार बार कल्याणमयी पुरुष को
जाना चाहिए इन क्षेत्रों में भी।
असंख्य जीवों से भरपूर ब्रह्माण्ड के
एक मात्र मूल भगवान कृष्ण ही
इसलिए समस्त जीवों की आत्मा
उनकी पूजा से तृप्त हो जाती।
विशेष सुपात्र माना गया है
मनुष्यों में भी ब्राह्मण को
क्योंकि वह तपस्या विद्या आदि से
धारण करे हरि के वेदरूप शरीर को।
जो सर्वात्मा भगवान कृष्ण हैं
उनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही
क्योंकि तीनों लोक पवित्र हों
धूल से उनके चरणों की |