सत्य - असत्य
सत्य - असत्य
दो शब्द जिनका एक ही अर्थ होता है उन्हें प्रायवाची शब्द कहते हैं और जिनका अर्थ एक दूसरे के उलट होता है उन्हें विलोम कहते हैं । कुछ विलोम शब्दों को मिलाकर एक कविता लिखने का प्रयास किया है ।
सत्य - असत्य
जन्म लेते ही तू रोता है
मृत्यु आयी तब भी रोये
पाप - पुण्य जवानी में जो किए
बुढ़ापे में है उनको ढोये ।
ख़ुशी की बात हो या हो ग़म की
करता रहता है तेरा मेरा
चाहे तू दुख की रात ढले और
हो जाए सुख का सवेरा ।
अंधेरा अज्ञान का दूर कर
उजाला तू ज्ञान का करके
किसी से भी तू घृणा ना कर और
प्रेम का रस पी ले जी भर के ।
नाशवान शरीर ये तेरा
आत्मा तो तेरी अजर - अमर है
कुछ समय के लिए ही बस ये
शरीर तेरा आत्मा का घर है ।
घटता - बढ़ता धन ये तेरा
सुबह - शाम है कर्म करे तू
कभी निर्धन, धनवान बने कभी
दिन - रात चिंता में मरे तू ।
किसी को तू समझे है अपना
और किसी को तू पराया
कभी मान पाकर इतराये
कभी बहुत अपमान है पाया ।
छोटा सा सुंदर घर तेरा
सदैव बड़े की इच्छा रखता
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
सभी दिशाओं में भटकता ।
सौभाग्य से मानव जन्म मिला है
दुर्भाग्य सफल ना कर सका इसको
मिथ्या जीवन जी रहा है
पहचान सका ना तू सत्य को ।
लोभी प्रवृति के कारण तू
सदा बना रहा एक भोगी
चित में कभी संतोष ना पाया
बन सका ना तू एक योगी ।
लेन - देन में लगा रहा तू
विजय सदा ही तुमको भाए
प्रशंसा तो अच्छी लगे तुम्हें
निंदा, पराज्य दुख दे जाए ।
प्रभु का दास बनकर तो देख तू
वो ही हैं स्वामी हम सब के
रिक्त स्थान जो हृदय में तेरे
वो ही हैं पूर्ण कर सकते ।
वही करें रचना ब्रह्माणड की
और विनाश भी करते हैं वही
सृष्टि - प्रलय दोनों जो होतीं
होतीं उनकी माया से ही ।
अतीत का शोक, भविष्य की चिंता
ये सुलभ है, दुर्लभ है ये तो
क्रोध कर रहा तू निर्धन पर
क्षमा माँगे धनवान जो हो वो ।
अधम प्राणी तू इस संसार का
पर सोचे श्रेष्ठ तू सब में
लाखों का सृजन हो रहा हर पल
इतनों का ही काल विनाश करे ।
जब तरुण हो इतराये है
वृद्ध हो जब, दुखी हो जाता
दुखी हो जब तू ग़रीब है
अमीर हो तब भी दुख ही पाता ।
अनिश्चित है सब यहाँ पर
निश्चित कुछ भी ना जीवन में
जो आज रक्षक है तेरा
भक्षक बन जाए एक क्षण में ।
क्षणिक है लिंग शरीर ये तेरा
शाश्वत तो बस एक आत्मा
स्वर्ग- नर्क भी बस कुछ पल के
सदैव रहता है परमात्मा ।
बुरे कर्म कर पतन हुआ है
अच्छा कुछ कर, उत्थान हो तेरा
श्रद्धा से मिटा दे उस अश्रद्धा को
जिस ने तुम पर डाला डेरा ।
मुक्त हो बंधन से संसार के
कुछ भी दुर्लभ - सुलभ नहीं है
ना कुछ यहाँ नूतन - पुरातन
सबमें और सब ही वही है ।
उस परमात्मा की स्तुति कर
निंदा ना तू कर किसी की
संत तू बन, असंत ना बन तू
अविद्या को काटे तेरी विद्या ही ।
मूर्खतावश पाप कर्म करे
बुद्धिमत्ता धरी रह जाए
दुर्जनों की संगत में रहे तू
दूर रहे सज्जन पुरुषों से ।
मैं राजा हूँ वो रंक है
बड़ा हूँ मैं और छोटा है ये
वो निर्धन और मैं धनवान हूँ
भेद ना जाने काल कोई इनमें ।
पाप से मेरा पतन हो चुका
उत्थान करो आत्मा का मेरी
मैं तो हूँ अवगुणों से भरा
आप तो ख़ान हो गुणों की ।
किसी के कटु वचन सुनकर भी
मैं उसको बोलूँ मधुर ही
विष भी जो कोई दे दे मुझको
अमृत हो जाए कृपा से तेरी ।
समय चाहे प्रतिकूल हो जाए
तुम मेरे अनुकूल ही रहना
कुमार्ग में भटक रहा मैं
सुमार्ग मुझे तुम दिखलाना ।
है लौकिक सारी सृष्टि ये
आलोकिक बस एक तू ही है
ऋणी तुम्हारा मनुष्य जन्म दिया
जानूँ ना उऋण कैसे होऊँ मैं ।
गुरु मेरे तुम, मैं शिष्य आपका
पाठ पढ़ाना मुझको धर्म का
अधर्म से मैं सर्वदा दूर रहूँ
कभी ना भूलूँ स्मरण आपका ।
अहिंसा तो परमो धर्म है
सदा दूर रहूँ मैं हिंसा से
अश्रद्धा कभी मन में ना आए
सदैव तुममें श्रद्धा बनी रहे ।
हित -अनहित मेरा समझें आप है
सत्य का मार्ग मुझे दिखाओ
असत्य की गाँठें खोलकर
तुम मेरे हृदय में बस जाओ ।
मैं तो एक मलिन मनुष्य हूँ
निर्मल कर दो बसकर हृदय में
दण्ड दो पाप किए जो मैंने
या फिर आप क्षमा मुझे कर दें ।
सुगम रास्ता ना पाने का तुम्हें
दुर्गम है डगर भक्ति की
तेरे आश्रय सब शुभ ही होता
अशुभ भक्त का तुम ना करो कभी ।
किसी के भी विपक्ष ना हो तुम
और ना ही किसी का पक्ष लो
सगुण रूप में सभी पूजा करें
परंतु तुम तो प्रभु निर्गुण हो ।
मेरे प्रश्न का उत्तर दो प्रभु
जीव - निर्जीव जो भी ब्रह्माणड में
और जो भी चेतन - अचेतन
कैसे मिलो परमात्मा तुम उन्हें ।
सुबह शाम तुम को ही भजूँ मैं
अन्त ना कोई, तुम तो अनन्त हो
हम अनाथ, कर दो स्नाथ हमें
अपनी शरण में ले लो हमको ।