Ajay Singla

Inspirational

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Ajay Singla

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सत्य - असत्य

सत्य - असत्य

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दो शब्द जिनका एक ही अर्थ होता है उन्हें प्रायवाची शब्द कहते हैं और जिनका अर्थ एक दूसरे के उलट होता है उन्हें विलोम कहते हैं । कुछ विलोम शब्दों को मिलाकर एक कविता लिखने का प्रयास किया है ।


सत्य - असत्य


जन्म लेते ही तू रोता है 

मृत्यु आयी तब भी रोये 

पाप - पुण्य जवानी में जो किए 

बुढ़ापे में है उनको ढोये ।


ख़ुशी की बात हो या हो ग़म की 

करता रहता है तेरा मेरा 

चाहे तू दुख की रात ढले और 

हो जाए सुख का सवेरा ।


अंधेरा अज्ञान का दूर कर 

उजाला तू ज्ञान का करके 

किसी से भी तू घृणा ना कर और 

प्रेम का रस पी ले जी भर के ।


नाशवान शरीर ये तेरा 

आत्मा तो तेरी अजर - अमर है 

कुछ समय के लिए ही बस ये 

शरीर तेरा आत्मा का घर है ।


घटता - बढ़ता धन ये तेरा 

सुबह - शाम है कर्म करे तू 

कभी निर्धन, धनवान बने कभी 

दिन - रात चिंता में मरे तू ।


किसी को तू समझे है अपना 

और किसी को तू पराया 

कभी मान पाकर इतराये

कभी बहुत अपमान है पाया ।


छोटा सा सुंदर घर तेरा 

सदैव बड़े की इच्छा रखता 

पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण 

सभी दिशाओं में भटकता ।


सौभाग्य से मानव जन्म मिला है 

दुर्भाग्य सफल ना कर सका इसको 

मिथ्या जीवन जी रहा है 

पहचान सका ना तू सत्य को ।


लोभी प्रवृति के कारण तू 

सदा बना रहा एक भोगी 

चित में कभी संतोष ना पाया 

बन सका ना तू एक योगी ।


लेन - देन में लगा रहा तू 

विजय सदा ही तुमको भाए

प्रशंसा तो अच्छी लगे तुम्हें 

निंदा, पराज्य दुख दे जाए ।


प्रभु का दास बनकर तो देख तू 

वो ही हैं स्वामी हम सब के 

रिक्त स्थान जो हृदय में तेरे 

वो ही हैं पूर्ण कर सकते ।


वही करें रचना ब्रह्माणड की 

और विनाश भी करते हैं वही 

सृष्टि - प्रलय दोनों जो होतीं 

होतीं उनकी माया से ही ।


अतीत का शोक, भविष्य की चिंता 

ये सुलभ है, दुर्लभ है ये तो 

क्रोध कर रहा तू निर्धन पर 

क्षमा माँगे धनवान जो हो वो ।


अधम प्राणी तू इस संसार का 

पर सोचे श्रेष्ठ तू सब में 

लाखों का सृजन हो रहा हर पल

इतनों का ही काल विनाश करे ।


जब तरुण हो इतराये है 

वृद्ध हो जब, दुखी हो जाता 

दुखी हो जब तू ग़रीब है 

अमीर हो तब भी दुख ही पाता ।


अनिश्चित है सब यहाँ पर 

निश्चित कुछ भी ना जीवन में 

जो आज रक्षक है तेरा 

भक्षक बन जाए एक क्षण में ।


क्षणिक है लिंग शरीर ये तेरा 

शाश्वत तो बस एक आत्मा 

स्वर्ग- नर्क भी बस कुछ पल के 

सदैव रहता है परमात्मा ।


बुरे कर्म कर पतन हुआ है 

अच्छा कुछ कर, उत्थान हो तेरा 

श्रद्धा से मिटा दे उस अश्रद्धा को 

जिस ने तुम पर डाला डेरा ।


मुक्त हो बंधन से संसार के 

कुछ भी दुर्लभ - सुलभ नहीं है 

ना कुछ यहाँ नूतन - पुरातन 

सबमें और सब ही वही है ।


उस परमात्मा की स्तुति कर 

निंदा ना तू कर किसी की 

संत तू बन, असंत ना बन तू 

अविद्या को काटे तेरी विद्या ही ।


मूर्खतावश पाप कर्म करे 

बुद्धिमत्ता धरी रह जाए

दुर्जनों की संगत में रहे तू 

दूर रहे सज्जन पुरुषों से ।


मैं राजा हूँ वो रंक है 

बड़ा हूँ मैं और छोटा है ये 

वो निर्धन और मैं धनवान हूँ 

भेद ना जाने काल कोई इनमें ।


पाप से मेरा पतन हो चुका 

उत्थान करो आत्मा का मेरी 

मैं तो हूँ अवगुणों से भरा 

आप तो ख़ान हो गुणों की ।


किसी के कटु वचन सुनकर भी 

मैं उसको बोलूँ मधुर ही 

विष भी जो कोई दे दे मुझको 

अमृत हो जाए कृपा से तेरी ।


समय चाहे प्रतिकूल हो जाए

तुम मेरे अनुकूल ही रहना 

कुमार्ग में भटक रहा मैं 

सुमार्ग मुझे तुम दिखलाना ।


है लौकिक सारी सृष्टि ये 

आलोकिक बस एक तू ही है 

ऋणी तुम्हारा मनुष्य जन्म दिया 

जानूँ ना उऋण कैसे होऊँ मैं ।


गुरु मेरे तुम, मैं शिष्य आपका

पाठ पढ़ाना मुझको धर्म का 

अधर्म से मैं सर्वदा दूर रहूँ 

कभी ना भूलूँ स्मरण आपका ।


अहिंसा तो परमो धर्म है 

सदा दूर रहूँ मैं हिंसा से 

अश्रद्धा कभी मन में ना आए

सदैव तुममें श्रद्धा बनी रहे ।


हित -अनहित मेरा समझें आप है 

सत्य का मार्ग मुझे दिखाओ 

असत्य की गाँठें खोलकर

तुम मेरे हृदय में बस जाओ ।


मैं तो एक मलिन मनुष्य हूँ 

निर्मल कर दो बसकर हृदय में 

दण्ड दो पाप किए जो मैंने 

या फिर आप क्षमा मुझे कर दें ।


सुगम रास्ता ना पाने का तुम्हें

दुर्गम है डगर भक्ति की 

तेरे आश्रय सब शुभ ही होता 

अशुभ भक्त का तुम ना करो कभी ।


किसी के भी विपक्ष ना हो तुम 

और ना ही किसी का पक्ष लो 

सगुण रूप में सभी पूजा करें 

परंतु तुम तो प्रभु निर्गुण हो ।


मेरे प्रश्न का उत्तर दो प्रभु 

जीव - निर्जीव जो भी ब्रह्माणड में 

और जो भी चेतन - अचेतन 

कैसे मिलो परमात्मा तुम उन्हें ।


सुबह शाम तुम को ही भजूँ मैं 

अन्त ना कोई, तुम तो अनन्त हो 

हम अनाथ, कर दो स्नाथ हमें 

अपनी शरण में ले लो हमको ।


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