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Prashant Bebaar

Abstract Classics

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Prashant Bebaar

Abstract Classics

नज़्म एक ट्रेन है

नज़्म एक ट्रेन है

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नज़्म एक ट्रेन है

जो दौड़ती है एहसास

और अल्फ़ाज़ की पटरी पे

कई दफ़ा तो कुछ नज़्में

भाग के मैंने पकड़ी हैं

और कुछ दफ़ा तो कई मिसरे

हाथ में आकर छूटे हैं।


जिन नज़्मों की मंज़िल,

मेरी फ़ितरत तक नहीं जाती

छोड़ दी हैं दौड़ने को

मेरे ज़ेहन के स्टेशन से दूर।


कुछ तेज़ तीख़ी नज़्में तो

ज़ेहन में कई मील दूर से गूंजती हैं

जताती हैं कि कायनात की कितनी सदाएं

बसर हैं इसके ऊंचे उठते धुंए में।


अचानक रोक दूँ जो ज़ेहन के स्टेशन पे गर

तो पटरियां चीख़ती हैं अल्फ़ाज़ की, मानो

किसी ने मिसरा अधूरा छोड़ा हो जैसे,या

जब चेन खींचता है दौड़ती ट्रेन में कोई।


क्या पता इस तस्सवुर के लिए

कोई जग़ह बाकी है भी या नहीं

उन नज़्मों के भरे हुए डब्बों में

सारे नुख़्ते तो यूँ, कुचे पिसे से बैठे हैं।


पर जब जब ये नज़्म किसी

यादों के पुल से गुज़रती है,

या पढ़ी जाती है क़लाम सी

शायरे-शब महफिलों में


सारे जज़्बात की पटरियां

कांपने लगती हैं दूर तलक

जब तक यह नज़्म उस याद का

वो पुल पार न कर दे।

एक ट्रेन है नज़्म,

नज़्म एक ट्रेन है।


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