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Prashant Beybaar

Abstract

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Prashant Beybaar

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ऐसे भी ग़म होते हैं जो दिल में घर कर जाते हैं

ऐसे भी ग़म होते हैं जो दिल में घर कर जाते हैं

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ऐसे भी ग़म होते हैं जो दिल में घर कर जाते हैं

घर की चाहत रखने वाले यूँ ही बेघर जाते हैं 


मुद्दतों ना हाल पूछा, दिल में बस रक्खा गुमां

ख़्वाब आँखों की सतह पे ऐसे ही मर जाते हैं


तुम वो पहले शख़्स कब हो, लोग ऐसे ही मिले

क़ुर्बतों का वादा कर के दूर अक्सर जाते हैं


कितना चाहा भूल जाएँ, याद पर ऐसी सिफ़त

हर सुबहा ख़ाली हुए, रात तक भर जाते हैं


अपनी औलादों को मज़हब की विरासत न मिले

ख़ून दिल्ली में जो देखा मन ही मन डर जाते हैं


नौकरी क्यूँ दम न लेगी, मन भला कैसे लगे

ख़्वाब तकिये में सुलाकर रोज़ दफ़्तर जाते हैं.



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