आत्मसम्मान सीता का
आत्मसम्मान सीता का
देख चन्द्रमुखी सीता को, बन गये नयन चकोर राम के,
न झपका पाईं पलक सीता भी देख अति सुन्दर राम को,
हुआ प्रेम प्रथम दृष्टि में सिया-राम को एक दूजे से,
ले गये अयोध्या सीता को राम पूर्ण सम्मान से कर ब्याह,
पाया प्रेम व आदर अनुपम जनक दुलारी ने राजा दशरथ और रानियों का तीनों।
गई लग नज़र राम और सीता को, किया प्रस्थान राम ने वन की ओर,
चल दी छोड़ सुख भौतिक सभी सीता अपने प्रियतम संग!
टूट पड़ा पहाड़ विपत्तियों का सीता पर ले गया हर रावण लंका जब,
कर खोज हनुमंत ने सीता की, दिया आश्वासन जनक दुलारी को,
ले जायेगें राम उन्हें कर वध दुष्ट रावण का,
की चढ़ाई लंका पर राम, लक्ष्मण ने संग वीर वानरों व रीछों के,
बढ़ा हाथ विभीषण ने भी दिया साथ युद्ध में राम, लक्ष्मण का,
हुई विजयी सेना श्री राम की कर वध अभिमानी रावण का।
दी आज्ञा विभीषण ने लाने की सीता को सजा कर रानी की भाँति,
नेत्र खुले तो खुले ही गये रह सीता के, हुई आत्मविभोर पा दर्शन राम के,
सुन उपस्थिती सीता की हो खिल उठे राम, परन्तु था मन उद्वेलित,
बैठे थे चिन्तित, कर भान स्थिति का दी आज्ञा विभीषण ने सेना को,
देने की एकान्त सीता राम को, परन्तु न जाने दिया राम ने किसी को,
कह यह हैं सब उनके अपने, दिया धन्यवाद राम ने सेना को होने पर विजयी,
करते हुए आघात आत्मसम्मान पर सीता के बोले राम:
‘ है सन्देहात्मक चरित्र तुम्हारा खड़ी हो फिर भी अडिग तुम,
ले आया था रावण तुम्हें भर अपनी भुजाओं में,
दिशायें दसों हैं खुली जा सकती हो कहीं भी तुम, हो अत्यन्त अप्रिय मुझे।’
हुए क्षुब्ध हनु, विभीषण, लक्ष्मण व सेना सुन अप्रिय वचन राम के,
कर्णों ने सीता के सुने थे केवल प्रेम में घुले वचन रघुवीर से,
बह निकली असीमित धारा अश्रु की नयनों से सीता के
सुन तीर समान कटु वचन प्रियतम के समस्त सेना के समक्ष,
विदीर्ण हुआ हृदय परन्तु करती हुई रक्षा आत्मसम्मान की अपनी बोली वचन जानकी ये:
अकेली असहाय थी मैं ले गया रावण जब पकड़ मुझे, था क्या अपराध इसमें मेरा?
बसे हैं रघुकुल नन्दन ही सदा मेरे हृदय व नेत्रों में, हैं नहीं अनभिज्ञ वे स्वयं इस सत्य से,
हूँ स्वंय साक्षी मैं पवित्रता की अपनी।’
दी आज्ञा वैदेही ने लक्ष्मण को करने की प्रज्वलित अग्नि, खड़े रहे राम अविचलित,
किया पालन आज्ञा का लक्ष्मण ने जल भरे नेत्रों से जनक दुलारी सीता का,
कर प्रार्थना जानकी लगी करने प्रवेश अग्नि में मानों हों धार घृत की,
रही थी बह अश्रु धार हर किसी के नयनों से,
निकले तभी गोद में उठा अग्नि देव सुरक्षित निष्पाप, निष्कलंकित सीता को,
हर्षित हो बोले राम:
करने को साबित सबके समक्ष दाग रहित चरित्र सीता का किया यह उपाय,
न था कभी भी सन्देह मुझे जनक नन्दिनी सीता पर।’
घर घर जले दीप पहुँचे जब अयोध्या श्री राम वैदेही संग,
हुआ राज तिलक, बने राजा राम और रानी सीता,
चल रहा था राज दरबार पूछा राजा ने विचार प्रजा का राजा व रानी के विषय में,
कर रही थी प्रशंसा जनता आपकी अद्भुत निर्माण समुद्र सेतु का व रावण वध का,
हो रही थी आलोचना कह ले आये घर स्त्री को, रखा था बंधक जिसे पराये पुरूष ने।
चिन्तित राम ने कर विचार हृदय में, दी विदा दरबारियों को बुलाया भाइयों को सभी,
दी आज्ञा लक्ष्मण को छोड़ आने की सीता को जंगल में वाल्मिकि आश्रम के निकट,
मन्दिर ले जाने के बहाने, किया विरोध लक्ष्मण ने परन्तु न माने अयोध्यापति,
भरे हृदय से पहुँचे जंगल लक्ष्मण ले साथ गर्भवती जानकी को।
अनुरोध पर मैथिली के कह दिया सत्य सब लक्ष्मण नें, अविचलित रही सीता,
दी आज्ञा जनक नन्दिनी ने लक्ष्मण को करने की सेवा हर हाल में श्री राम की।
दिया जन्म जुड़वां बच्चों लव और कुश को सीता ने वाल्मिकी आश्रम में,
लगे पाने शिक्षा दोनों भाई और की कंठस्थ राम कथा रचित वाल्मिकी द्वारा,
दी आज्ञा ऋषि ने लव कुश को गाने की राम कथा राम राज्य में अश्वमेध यज्ञ के मध्य,
रह गये चकित सुन राम कथा लव कुश से राम, न लगी देर समझने में हैं उनके ही पुत्र दोनों,
भेजा समाचार तुरंत ऋषि को राम ने,
‘आज्ञा से वाल्मिकी की आये दरबार में जानकी, लें शपथ पवित्रता की अपनी समक्ष राज दरबारियों के, तो ले लेंगे वापिस सीता को।’
पधार राज दरबार में कहा राम से वाल्मिकि नेः
‘है सत्य वचन मेरा रहीं निष्पाप सीता आश्रम में मेरे, दिया जन्म वहीं पुत्रों को आपके’
बोले प्रसन्ननचित राम ‘ था न कभी अविश्वास जानकी पर, करना था बस को दूर संशय जनता का।’
किया प्रवेश जनक नन्दिनी ने अप्रतिम आत्मविश्वास के साथ झुकाये सिर अपना,
करने हेतु अपने आत्मसम्मान की रक्षा करी प्रार्थना जोड़ हाथ धरती माँ से:
‘की है पूजा मन, वचन और कर्म से मैंने श्री राम की, दें स्थान हे धरती माँ,
गोद में अपनी कर कृपा मुझ पर।’
हुई प्रकट माँ धरती ले गईं संग अपने।।
दे गई शिक्षा सीता नारी जगत को करने की रक्षा आत्मसम्मान की विषम से विषम परिस्थितियों में भी ।।
