श्रीमद्भागवत -१५२; गजेंद्र और ग्राह का पूर्वचरित्र और उनका उद्धार
श्रीमद्भागवत -१५२; गजेंद्र और ग्राह का पूर्वचरित्र और उनका उद्धार
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
ब्रह्मा, शंकर, ऋषिओं आदि ने
भगवान् के इस कर्म की प्रशंसा की
फूलों की वर्षा की ऊपर उनके।
परम आश्चर्यमय दिव्य शरीर से
संपन्न हो गया ग्राह तुरन्त ही
पहले ग्राह हूहू नामक गन्धर्व था
देवल के शाप से ये गति प्राप्त हुई थी।
भगवान की कृपा से मुक्त हो गया
प्रणाम किया प्रभु के चरणों में
हरि के स्पर्श से उसके
पाप-ताप सब नष्ट हो गए।
भगवान् के सुयश का गान करे वो
श्री हरि की उसने परिक्रमा की
सबके देखते देखते उसने
यात्रा की अपने लोक की।
गजेंद्र भी हरि के स्पर्श से
बंधन से मुक्त हुआ अज्ञान के
पीताम्बरधारी, चतुर्भुज बन गया
भगवान का रूप प्राप्त हुआ उसे।
पूर्व जन्म में ये गजेंद्र ही
पांड्यवंशी राजा था द्रविड़ देश का
अत्यंत यशश्वी, उपासक हरि का
इन्द्रद्युम्न उसका नाम था।
एक बार राज पाठ छोड़कर
मलयपर्वत पर रहने लगा राजा
उन्होंने जटाएं बढ़ा लीं
तपस्वी वेष धारण कर लिया।
एक बार जब हरि की आराधना करे
अगस्त्य मुनि तब देवयोग से
अपनी शिष्य मण्डली के साथ में
उनके पास आ पहुंचे थे।
देखा कि प्रजापालन, अतिथि सेवा
राजा ने त्याग किया इन धर्मों का
एकांत में तपस्वियों की तरह
चुपचाप बैठा उपासना कर रहा।
यह देख क्रुद्ध हुए राजा पर
राजा को था शाप दे दिया
कहें, गुरुजनों से शिक्षा न ग्रहण की
अभिमानवश मनमानी कर रहा।
अपमान करने वाला ब्राह्मणों का
जड़ बुद्धि है, समान हाथी के
वही घोर अज्ञानमयी हाथी की
योनि प्राप्त हो इसलिए इसे।
शुकदेव जी कहें कि शाप देकर ये
अगस्त्य मुनि चले गए वहां से
यह सोच कि ये मेरा प्रारब्ध है
संतोष कर लिया था राजा ने।
आत्मा की विस्मृति जो करा दे
हाथी की योनि फिर उन्हें प्राप्त हुई
परन्तु हरि की आराधना के प्रभाव से
प्रभु की स्मृति हुई हाथी होने पर भी।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
गजेंद्र का उद्धार करके उसे
पार्षद बनाया हरि ने अपना और
उसे लेकर अपने धाम चले गए।
हे परीक्षित स्तुति से गजेंद्र की
प्रसन्न हो श्री हरि भगवान ने
सब लोगों के सामने ही
यह बात कही थी उसे।
जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में
मेरा स्तवन करें इस स्तुति से
दान दूंगा निर्मल बुद्धि का
उनको मैं मृत्यु के समय।