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निशान्त मिश्र

Abstract

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निशान्त मिश्र

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मुझे ले चलो मेरे गांव ए साथी

मुझे ले चलो मेरे गांव ए साथी

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चलो, होके आएं पुराने बगीचे

कुशों के बिछौने, पत्तियों के गलीचे

वो इक शाख, अब तक बची तो न होगी

कहीं झुरमुटों में, दबी, मिल ही जाए


वो वट मित्र, अब क्या दिखाई भी देगा

जटाओं पे जिसकी, उमर झूलती थी

वो जीवित मिले, ना मिले, पर मिलेगा

शकुंतों के नीड़ों, को खुद में बसाए


वो जामुन की दातून, बरसाती पानी

संवरती थी जिसमें, वो कच्ची जवानी

वो दादुर, वो तालाब, अब भी मिलेंगे?

कमल बेल कुमकुम सी, यूं ही सजाए


न जाने, वो क्यारी अब भी मिलेगी?

कुमुदनी के कोमल, कोपल खिलाए

वो बातूनी, बंजर, बहिष्कृत सा टीला

वहीं होगा क्या, अपने शूलों के साए


मुझे ये नगर सूझता ही नहीं है

फरक ही नहीं, कोई आए या जाए

मुझे ले चलो मेरे गांव, ए साथी

घड़ी दो घड़ी ही सही, नींद आए !!



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