अब नहीं मिलता है इंसा किसी से
अब नहीं मिलता है इंसा किसी से


अब नहीं मिलता है इंसा किसी से भी प्यार से
खुद को बाँध लिया है सब ने इक डोर से।
लिखता हूँ हकीकत जब मैं कलम की धार से
खूं हीं खूं निकलता है जिस्म के आर-पार से।
झूठ का साथी बने औ सच को मरता छोड़ दे
बू सी आती है गुलामी की ऐसे फनकार से।
आदमी हीं आदमी के ख़ून का प्यासा बना है
क्या मिलेगा आदमी को ऐसे इस संसार से।
बन्द कर के आवाज़ें हमारा हौसला तोड़ दोगे
हम नहीं डरते ऐसे दमनकारी सरकार से !