आवरण
आवरण
ब्रह्माण्ड में, नहीं नहीं पृथ्वी पर
प्राणियों में
जब मानव ने औरों पर अधिपत्य ज़माना
शुरू किया होगा॥
डायनासोर जैसे विशालों से
धरती थक गयी होगी, शायद॥
मानव ने मस्तिष्क पाया
अपनों से बड़ों ताक़तवरों का कम किया होगा॥
अपनों से भी
आपस में भिड़ते लड़के
बहस करते अपने अपनी सोचों को थोपा होगा॥
वहाँ से धर्म बने होंगे
राष्ट्र की सीमाएं बनती बदलती रही होगी॥
उससे तो और भी पहिले
अपने को आवरण से ढका होगा
छल कपट लम्पट
मार काट ग़ुलामी॥
सिक्कों ज़मीन पर क़ब्ज़ा
… और कुछ बाद अवैध क़ब्ज़ा॥
राजशाही राजनीति
ये मानवीय मस्तिष्क की पहल होगी
ताक़तवरों को पीछे करने को॥
हम मानव आवरण के सायों में
मानवों के ही खा रहे हैं॥
मैं हिल कर रह गया जब
भैंरो मन्दिर परिसर में
वैष्णोदेवी धाम के कुछ ऊपर
मानवीय भक्तों की कपड़े पहनी भीड़ के सामने ही
लंगूर और बन्दरों को
खुले आम रति रत देखा
प्रकृति में तो अब भी यही है
बचे सब जीव खुले आम ही जीते हैं
पूरी पृथ्वी उनकी है, या कुछ भी नहीं ।
बस हम ही हैं
आवरण ओढ़ते हैं
और कुछ भी कर गुजरते हैं॥
शायद एक पल वो भी आये
जब दूसरा जीव
आवरण ओढ़ते
और हम
कालजयी होने लगें॥
