आतश
आतश
हुई नतमस्तक जब आषाढ़ को,
धरा भी अर्क हो गयी,
हुई अभिलाषित अश्रुओं की,
जिसने न कभी कोई चाहत की,
तस्लीम पेश करता इसका आँचल,
बयारों का आगमन करता है
सूखा कंठ जिसका,
आशा का आचमन करता है,
तपती धरती पर जब बरखा भई,
थिरक उठी पायल सबन की,
पिया के लिए श्रृंगार करती है,
आज बिंदिया खूब सजती है,
गरजते बादल से सहम उठती है,
मिटटी की खुशबु से बहक उठती है,
गलियों में बेड़े बहते हैं,
बुरी यादों के साथी,
जल की आढ़ में रक्त बहते हैं
शायद बिंदिया का सुहाग भी
किसी याद की भाँती जलाशयों में समा गया है
अब तो उसके घर सन्देश भी आ गया है
रुदन के सिवा अब कोई गायन नहीं होता,
यह आँचल सफ़ेद ही रह जायेंगे,
काश कर्म भी अर्क हो जायें
यूँ ही बारिश से शांत हो जायें
काश यह आतश इन कश्तियों में रख पाती
काश बिंदिया माथे पर सज पाती।