झरोखों से गुज़रते हुए लम्हों को निरखता
झरोखों से गुज़रते हुए लम्हों को निरखता
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झरोखों से गुज़रते हुए लम्हों को निरखता,
कितने ही सपनों को बुनता,
मैं अपने ही विनय से विस्मित,
अपने ही चेष्टा से क्षुब्ध हूँ।
लफ़्ज़ों ही की सेज पर लेटा,
हूँ मैं नित कितने खत लिखता,
स्तुति को आज अक्षर मैं खोजता,
अपनी ही दुविधा में व्यस्त हूँ।
ले उड़ा जो मेरा चैतन्य चुराकर,
उसके ही चित्र मेरे अश्रु सींचे,
भीगी इस तारक की बद्री,
के कंपन में मैं विभोर हूँ।