आषाढ़ मेरे मन की महफ़िल
आषाढ़ मेरे मन की महफ़िल
आषाढ़ मेरे मन की महफ़िल,
हुआ यहाँ ना नृत्य न सावन की बूँदें झलकीं ,
हुआ जाता मन बेबस-बियाबान न कोई तान छलकी।
मेरे नसीब की सियाही देखो आंसुओं से मिटती जाती,
पखेरू थे जो स्वप्न तड़ित की ध्वनि से मूर्छित होते जाते,
दुखद धुल से आविल मन पावस से पंकिल होता जाये।
प्रखर थे जो उम्मीद के पाटल पत्थर पर गिर कर मुरझाये ,
उत्तमांश ग्लानि से मर जाने दो की तृष्णा इनमें शेष नहीं ,
यह भी सावन का तूफ़ान देखकर आँखें मूंदे रह गए।
आषाढ़ मेरे मन की महफ़िल विषाद का कोई अनघ पुराण
सतत सत्य ही सर्वथा सुनाता,आषाढ़ कभी न असत्य बतलाता
मैं ही मुर्ख जो भीगी एक नीरस बदरी की लालसा से बहका।
पर बुद्धि स्थिर न थी और था मेरा तन दाघ
शमशान की जलती शाखों सा था हाल मेरा
पर बैरी ही निकला सावन,
जिसकी चाह में किया तिरस्कृत आषाढ़।
उन्माद से उद्वेलित अब मन मेरा पृथक है
उद्यान मेरा जो था महका सा, उजड़ा पीड़ित विह्वल है
आषाढ़ मेरे मन की महफ़िल मैं एक बिरह की ताल।