आतंकवाद
आतंकवाद
रिमोट के बटन दबाता चला गया,
हर चैनल उसे हाहाकार दिखाता चला गया,
पन्ने वो अखबारों के यूं ही खुले छोड़ देता था,
एक-एक घूंट के साथ वो मृत्यु का पढ़ता चला गया,
उसे क्या? वो तो चैन की नींद सोया,
रोये वो जिसने अपना कुछ खोया,
कहीं डोली उठते ही अर्थी में बदली थी,
जलते–जलते होली की ज्वाला शमशान में बदली थी,
ईद–दिवाली के मेले सन्नाटे में बीते थे,
हर घर में क्रदन था,
आतंक के साये में लोग यहाँ जीते थे,
लड़ते–लड़ते कितने वीरों ने कुर्बानी दे दी,
कितनी माता सुत विहीन हुई,
कितनी बहने राखी लिए अधीर हुई,
कितने अनुज के सिर पर से आसमान हटा,
कितने पिता चट्टान बने,
हँसते–हँसते हर कुर्बानी दे दी,
ताकि अमन का राष्ट्र बने
गुलशन में खिलने वाला हर फूल
इस गलियारे की शान बने,
जब ये कली खिलें
बापू और सुभाष बने
बलिदान उनका सफल तब होगा ,
रक्त की एक–एक बूंद से
विस्फोट अजर–अमर होगा,
जब इस धरा से आतंक खत्म होगा,
निद्रा के आगोश से जब वो जागा
हाय-हाय वो अभागा
अब तक सूना देख रहा था
पर अब खुद ही भोग रहा था
अब जाके उसके हृदय मे विस्फोट हुआ,
वही अश्रु की अविरल धारा,
आँसू का अकाल हुआ,
जीवन भी उसे अब व्यर्थ लगा,
पहले क्यूँ ना चेता था,
तब तो औरों का कफन,
उसके लिए नीरा कपड़ा था,
अब अश्रु की हर धारा से,
उसके हृदय में शूल लगा,
क्रोध लिए, अंगार लिए
विवशता की लाश पर,
आशा की मशाल लिए,
वो चल निकला प्रतिशोध की धार लिए,
पर अब तक दुष्ट वृक्ष पनप चुका था वो,
छदम वेश में ढल चुका था वो,
चाहे हो अपना मकान,
या फिर हो वो मेहमान
पहचान सके तो उसे पहचान,
पर उसी नाग डसा था वो
दर्द क्या होता है,
ये जान चुका था वो,
दूर होता है,
जब कोई अपना,
हृदय की इस पीड़ा को पहचान चुका था वो,
हमारी अचेतना, मार्ग है उसका
हममें पनपा भय, यही प्रबल प्रहार है उसका,
हर पल, हर क्षण सचेत है रहना,
भ्रम से नहीं, हिम्मत कर सत्य को सहना,
पहचानना उसे,
अपनों में, अनजानो में, अंधेरे और उजाले में,
प्रबल इच्छा शक्ति से एक होकर टकराना है,
अमन के चाहने वालों का विकराल रूप दिखाना है,
भूमि की तह से उसकी जड़ो को खींच कर लाना है,
देश धर्म, हम सबका धर्म है
यही भाव जगाना है,
आओ, मिलकर एक हो जाएँ
आतंक को मिटाना है।