आओ कभी
आओ कभी
आओ कभी,
अंधेर सुबह की,
सुरमई रुख़ पर अचानक,
और फेर जाओ !
कोमल एहसास की पंखुडियां,
सिहरती जाऊं मैं लगातार,
बाहर से भीतर तक,
गनगना जाये पूरा बदन !
गुलाबी से सर्द होने तक मेरे,
फिर ये कम्बख्त आँखें,
खुलने से इंकार कर दें,
मन लसलसा सा हो जाये !
मैं तुम्हारे ख़्यालों में गुंथकर,
गुलकंद बन जाऊं !