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ARVIND KUMAR SINGH

Abstract

4.5  

ARVIND KUMAR SINGH

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आओ बसाऐं लकीरों में किस्‍मत

आओ बसाऐं लकीरों में किस्‍मत

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सफर ये है पर्वत, खाई, समंदर,

मतलब के रिश्तों की जंजीर भारी,

तपती रेत जो सुलगाती है हरदम,

साथ उसी के बिछौना सोने को है।


ईर्ष्‍या हो रही भाईचारे पे हावी,

दिल दिलों से निकल कर उजड़ने लगे,

बेसहारे तो मंझधार बहते किनारे,

और तूफॉं भी कस्‍ती डुबोने को है.


माना कठिन है सफर और लम्‍बा,

पर रुकना भी तो जीवन का द्योतक नहीं,

अभी तो है साहस बढ़ते रहेंगे,

भले ही राह तो कॉंटे पिरोने को है।


फटती सी पौ शायद देकर इशारा,

टिमटिमाते दिये को तसल्‍ली है देती,

कि लड़ाई है थोड़ी बस हारे न हिम्‍मत,

ऑंधियों से पहले सुबह होने को है।


आओ बसाकर लकीरों में किस्‍मत,

मंजिलों को मजबूर कर देंगें हम,

खुद आकर करीब लगती जाऐं गले,

और खुशियों से दामन भिगोने को है।


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