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Raghav Dixit

Abstract

4.8  

Raghav Dixit

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यूं मैं शमशान बन जाता हूं

यूं मैं शमशान बन जाता हूं

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240


पूछता हूं मैं खुद से इतना भिन्न क्यों हूं,

मैं अपनी वास्तविकता से इतना खिन्न क्यों हूं।


मैं अचानक किन विचारों में पड़ जाता हूं

खुद के विनाश के लिए क्यों खुद से लड़ जाता हूं?


बाहरी संसार में मैं इतना सम्मान पाता हूं, 

फिर क्यों मैं अंतर भाव में ग्लानि लाता हूं।


इन भाव चक्रों से क्यों मैं नहीं पार पाता हूं 

मैं अपने शत्रु को क्यों नहीं मार पाता हूं


जान कर भी मैं क्यों विषपान करता हूं

ताक पर रख मान को मैं क्यों अंतर्मन का सम्मान करता हूं। 


क्रोध के बस में विवेक शुन्य क्यों हो जाता हूं

भावनाओं के बेग में में क्यों बह जाता हूं? 


भावुक होना कोई पाप या अधर्म नहीं है। 

भावना में कर्तव्य विमूड होना किसी श्राप से कम नहीं है।


कभी-कभी मैं इतना असहाय हो जाता हूं। 

उपाय होते हुए भी निरूपाय हो जाता हूं। 


ऐसा नहीं है कि पाप-पुण्य के अंतर का ज्ञान नहीं है मुझे।

स्वार्थी हूं इसलिए दूसरों के दुख का भान नहीं है मुझे।


मैं खुद निरंतर उत्थान को प्राप्त होना चाहता हूं। 

पर मैं पग-पग पर पतन को प्राप्त होता जाता हूं।


ऐसा नहीं है कि पतन का कारण मुझे विदित नहीं है। 

मेरे पास ज्ञान है पर ज्ञान का दीपक उदित नहीं है। 


नाशवान हूं फिर भी मृत्यु से डरता हूं

आस्तिक हूं फिर भी नास्तिक होने का ढोंग करता हूं। 


झूठे मान गुमान में मैं ऐसे अनजान हो जाता हूं। 

ईर्ष्या में जलते जलते मैं शमशान हो जाता हूं।


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