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Pragya Kant

Abstract

4.2  

Pragya Kant

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नवजीवन

नवजीवन

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77


है छँट जाती जैसे घटा चाहे लाती

स्मिति या दे वो सुख का मुख हटा

क्षणभंगुरता ही है सार बनके आती है


माँ की ममता छोड़ नियति

स्थिरता कहीं न लाती है

जिस ज्ञान ने पार्थ को रणभूमि

पर कृतार्थ किया कर्म हो सर्वोपरि


इसने भी यह भावार्थ दियाआशा का

अंशुमाली जब पर पसारे आता है

दिवस के उत्थान-अवसान मध्य

यहअवसर नवीन दे जाता है !


है झुक जाते ऊँचे तरुवर शिखर है

घिस जाते पर्वत के सर सर्वथा

ना कुछ टिकता है दुर्दिन हो तो

सोना भी कौड़ी भाव ही बिकता है


कर्म जिसका आलिंगन भीड़ में 

हो या एकांत करे जीवन पथ पर

अग्रसर होकर वह एक दृष्टांत बने

काली घटा भले ही आज


प्रगाढ़ दिख पड़ जाती है,

परन्तु है छँट जाती ऐसे घटा

चाहे लाती स्मिति या 

दे वो सुख का मुख हटा !


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