मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
जान पड़ता था वो अपना सासाकार हुआ एक सपना सा !
ह्रदयरूपी निलय का स्थायी अतिथि सा वह जान पड़ा
आवेश के वशीभूत हो मन अपना सा उसे मान पड़ा
पर क्या योजना थी नियति की इसका मुझे था ज्ञान नहीं
जाने के लिए ही था आना उसका था इस तथ्य का मुझको भान नहीं
शब्दों पे न अर्पित हो जा मन यह शब्द केवल जीभ का कार्य क्षेत्र
बिन कर्म इन पे अभिमान नहीं ! अंधविश्वास का परिणाम शुभ्र नहीं
अपितु कृष्णा है ! वचन कर्म विहीन हो तोये मिथ्या है मृगतृष्णा है !