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Pragya Kant

Abstract

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Pragya Kant

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मंथन

मंथन

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चुनौती जब प्रकृति स्वयं निर्मित कर देती है

मानव को सहज ही संघर्ष का रस चखा यूं देती है 


हम वन उपवन जल गगनके अधिकारी बन के बैठे थे

एक विषाणु से ही हमारा दंभ अणु भर कर देती है


अब उन्मुक्त विचरण कर के क्या चिड़ियाघर जाएंगे !

जब चिड़िया घर को आएगी कोमल पंख फैलाआएगी


देख उसे दहलीज लांघने को अब हम ललचाएंगे !

हमने केवल है 'स्व' का ही तो ध्यान किया 


 नीयत खोटी कर इच्छा का नभ विस्तार किया

पर अब लगाम लगाने को धरा ने धर रखा है कमान


कर्म का फल है लौट के आता रण में कह गए भगवान !

कुटुम्बकम् की भावना से ही संभव अब भू कल्याण


यत्र तत्र सर्वत्र भोग की लालसा से ऊपर उठ हे इंसान !

क्योंकि जननी उद्दण्डता को सुधार ही देती है


चुनौती जब प्रकृति स्वयं निर्मित कर देती है

मानव को सहज ही संघर्ष का रस चखा यूं देती है !


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