भंवरा
भंवरा


ऐ कली तेरे हुस्न पर है जो दीवाना....
इर्द-गिर्द तेरे रहता जो उसका आना-जाना...
उसे तो तितलियों का भी आना गँवारा नहीं....
भंवरा समर्पित है जो तुझ पे नियति से वह आवारा नहीं...
झंकृत कर देता है वह अपनी गुनगुन से उस उपवन को..
कूक दबाकर कोयल भी देखती इस प्यार भरे आलिंगन को...
हर पुष्प पंखुड़ी सौंदर्य की वह इबादत करता...
उनकी आगोश
खुशबू से वह बखूबी खूब महकता..
पनाह में ही उसके वह अनवरत जीता मरता..
रंग बिरंगे फूलों के यौवन को लगे ना किसी की नज़र...
अपने कालेपन के गुण पर निगरानी करता वह बनके क़हर...
कलियों के मुरझाने पर वो पल -पल बेज़ार है..
अपनी आशिकी का वह खुशमिज़ाज दावेदार है..
उनके खिलने और सुगंध, महक सौरभ पर वह खुशगवार है..
उसके लिए फूलों के प्रति शायद यही बेशुमार प्यार है।