मुझे पता है
मुझे पता है
क्यों करता हूँ मैं
ये प्रयास
असह्य अवमूल्यन के
साथ
तुम्हारे आसपास
टंगी हुई अनुुभूतियों से
खिलवाड़...?
आश्वासनों के इंद्रजाल में
फंसकर
कितने ही आभासों को
जपूं..
सम्मोहनों का बखाा करूं....
मायावी मूल्यों की
निर्लज्जता में
निर्वस्त्र तुम्हे निहारूं
कामवश अपनी
अनुभूतियों को उजागर करूँ...
अनायास
अवसादों का नियंता बन
अभिशप्त हो जाऊँ
नयनों का मौन
पी जाऊँ
प्रशंसा के चाटुकारी
भ्रम का
स्रृष्टा बन जाऊँ...
पर सत्य के
उजले तन पर
नहीं पोत पाऊंगा
कालिख
आधे-अधूरे मन से....
मुझे पता है
फिर भी अंजान हूँ
दुविधाओं के पृष्ठों पर
सांठ-गांठ की लेखनी से
शब्दों के आडंबर से
नहीं रचा जा सकता है
कालजयी इतिहास
यथार्थ के धरातल पर....!!