अंदरूनी गिद्ध
अंदरूनी गिद्ध
शायरों की ग़ज़लें सुंदर होती है...
अधिकतर...
नायाब ख्यालात भी..
पर कुछ परेशां हो जाता हूँ
"जब दिल टूट के चाक चाक हो जाता हैं"
या" जिगर के हज़ारों टुकड़े बिखरते है
इधर उधर राहों मे"
या" फिर कोई यहाँ या वहाँ गिर जाता हैं"
"जनाज़े" तो हर दूसरी तीसरी ग़ज़ल मे
"उठ ही जाते हैं"
मरने का जश्न क्यों मनाया जाता है गज़लों नज़्मों मे ?
यह नही पूछता मैं
पर शायर ज़िंदगी का क्यों नही मनाता जश्न
यह पूछता हूँ मैं ?
मौत तो होनी ही है एक न एक दिन
तो उसके स्वागत की यह उत्सुकता क्यों?
"नश्तर, छुरी, तलवार" पर ही क्यों करते है
शायर अपनी नज़रे इनायत?
क्यों नही अमन चैन के ख्वाब देखते शायर?
"क्यों बे आबरू हो कर निकलता है शायर
हर गली से शराब के नशे में? "
क्यों नही ज्यादा सम्मान देता लेता है वह
अपनी प्रेमिका को या प्रेमिका से?
या क्यों नही लिखता अपनी ही पत्नी
के सम्मान मे चन्द प्नक्तियाँ?
क्यों पूरे शहर के शराबखानों का ठेका
शायरों के पास ही होता है?
क्यों उसकी निगाहों को "कफन ही कफन" दिखते है
सब तरफ
और क्यों करता है वो किसी "काफिर " का ज़िक्र
सत्रह बार चार गज़लों मे?
क्यों हर तीसरी गज़ल रुक जाती है
किसी "कब्रिस्तान "की चारदीवारी पर ?
और क्यों किसी की भी या अपनी ही " मैय्यत " "जनाज़ा "
उठा देता है शायर किसी भी बहाने?
यह आये हैं सवाल मुझ नाचीज़ के ज़ेहन में
हो सके तो आप भी फर्माएं गौर
इन मुद्दों पर क्योंकि
ज़िंदगी बहुत हसीन है!