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Ravi Purohit

Abstract

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Ravi Purohit

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आओ अगन ! मन की आंखें खोलो

आओ अगन ! मन की आंखें खोलो

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सुनो चेतना !

कब तलक कसमसाती रहोगी

होने-न होने के विभ्रम में

नकारोगी

स्वयं का होना

आखिर कब तक

भुलावे में रखोगी स्वयं को


सुनो धरा !

तुम्हे बोलना होगा

प्रतिकार करना ही होगा

जज्बाती विद्रूप का

वरना दुनियावी मुहब्बत के


थोथे बीज

लील जायेंगे

तुम्हारी अस्मिता,

समाप्त कर देंगे

तुम्हारा स्वः

नष्ट हो जायेगी


तुम्हारी उर्वरा शक्ति

सूख जाएगा

शर्म-हया-संस्कार का

नयन-जल

लोप जाएगा

नेह राग

और मौन साध लेंगे

आस-उम्मीद के सभी तराने

बंजर बियाबान में

गूंजेगी सिर्फ मर्सिया राग !


दुधमुंहों की किलकारियां

बदल जाएंगी

चीत्कार में

तब मां की छाती से टपकेगा

गरल खालिस

और मन-संवेदना-अहसास

हो जायेंगे राख


सुनो बावरी !

अब भी सुनो

कुछ तो बोलो

करवट बदलो,

जागो !


मन की आंखें खोलो

समय के सच को स्वीकारो धरा

जमाना होगा तुम्हारे पॉंवों में


आओ अगन !

भावों का ठंडा चूल्हा

तुम्हारे अंतस ताप के इंतजार में

ठिठुर रहा है न जाने कब से।


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