आम आदमी हूँ सहाब..
आम आदमी हूँ सहाब..
बंद नहीं होगी शायद
ये लूट तंत्र
जब शासक भी, तंत्र से मिले हो
बेचारी जनता क्या करे?
बेचारगी का जूता खाते रहे
या एक हाथ में जूता,
दूसरे हाथ कानून की चाबुक दे तड़ाक रसीद दे
हमें कानून तक दस्तक कहाँ हैं जनाब
हक़ के लिए लडूं तो मिलता नहीं,
मिलता भी तो सब कुछ गँवा देने के बाद।
हम आम लोग हूँ साहब
अपनी रोग तो खुद पाला है
ग़रीब, चोर, चौराहें मिल जाए
दे दनादन लात घूसा पड़ जाए
जब भ्रष्ट रसूख सामने आये
उसके जूते सर पर चढ़ाये
हम भीड़ का हिस्सा हैं
हम हमेशा रसूखों की बली चढ़ते हैं।
भीड़ में शामिल हो कर
सही -ग़लत का फ़र्क भूल जातें हैं ज़नाब ।
ये देखो मेरा तंत्र
हमारे बीच कौन सूराख़ कर रहा
ये लोकतंत्र, सबका है
क्यों मुठ्ठी भर लोग, सबके सर खड़ा
तुम में से बहुतों भ्रष्ट, चोर, बलात्कारी...
फिर भी शीर्ष पर खड़ा
बस मैं ही दोषी हूँ जनाब
ज़रा सी बात पर
मुक़ादमा की सारी धारायें ठोक दी जाती हैं।
मेरा क्या है साहब
आप की आदालत, आपकी पुलिस...
हम तो रसूख़ों का मोहरा हैं,
जिधर चाल, चली उधर बह चले
जनाब, एक हाथ जूता रखूँ
या आपका जूता खुद का सर
या कानून की डोर पकड़ कर अधिकार के लिए लडूं
आम आदमी हूँ साहब
आपके तंत्र जाल में फंस जाता हूँ
रोजी रोटी की तड़प में ख़ुद को आत्मसमर्पण कर देता हूँ
हम आम आदमी हूँ साहब...।
