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Mritunjay Patel

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Mritunjay Patel

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चरवाहा(हिंदी कविता)

चरवाहा(हिंदी कविता)

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तपती धरती,  गर्म हवाएं ,

बंजर  खेतों में झुलसी हुई 

घास , 

घास चरती गाय, भैंस बकरियां..


चरवाहे धूप में तप कर,

मवेशियों को पेट की भूख करता शांत।  


 तंग कपड़े , फटी  एड़ियां,

 बदन का दिखता हार मांस ,

बदन पसीनों से लथ पथ ,

ढूंढ़ रहा पेड़ की ठंढक । 


विकास की होड़ में कटते पेड़,

 बिगड़ती आब-ओ- हवा …

छीना है ;चरवाहों का कदम, बरगद, पीपल .. 

 पेड़ की साया ।


ये जन्म से जीवट है, 

 प्राकृत से रखता ताल मेल  !

 बाढ़ सुखाड़, वर्षा , 

प्राकृतिक आपदा से लड़ने की क्षमता ।


ये पशु पक्षियों से करते  बातें ,

 मंद मंद मुस्कुराता ,गाता प्रकृति के गीत ।

जीवन से आस लगाए ; 

जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।।


सूरज की ढलान हुई,

 चरवाहे चले अपने बस्ती की ओर ,

परिंदे गगन में शोर करे ,

लौट रहें अपने दिशा की ओर।।


बंजर भूमि, उजाड़ मौसम , 

कभी धूप छांव , बादल बरखा ,

लहलहाती फसल, तालाब नदियां ।


ये जीवन की मुख धारा से अलग थलग  ,

सुख दु:ख का साथी गाय भैंस, बकरियां ..,

कुछ शेर अनाज और भैंस ,बकरियां ..

मुसीबतों में बेच कर, होता कुछ ज़रूरतें पूरी ।

फिर भी याद सताती बहुत दिनों तक पशु प्रेम  ।


यह जीवन यापन करना कठिन है ,

किसान ,गरीबों का यह पेशा है ।


धूप में ख़ून जला कर ,

परिवार की कुछ ज़रूरतें पूरा करता है ।


ये अपने बच्चों को देता सीख 

तुम मत बनना मेरे जैसा चरवाहा , मज़दूर, किसान..

भूखे रह कर दो अक्षर पढ़ लो ,

गढ़ लेना हुनर का कोई काम , 

बन जाना कोई दफ़्तर का बाबू , 

तुम ना जताना किसी पर अहंकार ।


हमने पग पग अपमान सहा है ,

गरीबी , अनपढ़  के कारण !


हां मैं चरवाहा हूं,

गाता हूं प्राकृत के गीत 

दूसरों को सुख दे कर 

मैं सदा अकेला पता हूं।




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