चरवाहा(हिंदी कविता)
चरवाहा(हिंदी कविता)
तपती धरती, गर्म हवाएं ,
बंजर खेतों में झुलसी हुई
घास ,
घास चरती गाय, भैंस बकरियां..
चरवाहे धूप में तप कर,
मवेशियों को पेट की भूख करता शांत।
तंग कपड़े , फटी एड़ियां,
बदन का दिखता हार मांस ,
बदन पसीनों से लथ पथ ,
ढूंढ़ रहा पेड़ की ठंढक ।
विकास की होड़ में कटते पेड़,
बिगड़ती आब-ओ- हवा …
छीना है ;चरवाहों का कदम, बरगद, पीपल ..
पेड़ की साया ।
ये जन्म से जीवट है,
प्राकृत से रखता ताल मेल !
बाढ़ सुखाड़, वर्षा ,
प्राकृतिक आपदा से लड़ने की क्षमता ।
ये पशु पक्षियों से करते बातें ,
मंद मंद मुस्कुराता ,गाता प्रकृति के गीत ।
जीवन से आस लगाए ;
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।।
सूरज की ढलान हुई,
चरवाहे चले अपने बस्ती की ओर ,
परिंदे गगन में शोर करे ,
लौट रहें अपने दिशा की ओर।।
बंजर भूमि, उजाड़ मौसम ,
कभी धूप छांव , बादल बरखा ,
लहलहाती फसल, तालाब नदियां ।
ये जीवन की मुख धारा से अलग थलग ,
सुख दु:ख का साथी गाय भैंस, बकरियां ..,
कुछ शेर अनाज और भैंस ,बकरियां ..
मुसीबतों में बेच कर, होता कुछ ज़रूरतें पूरी ।
फिर भी याद सताती बहुत दिनों तक पशु प्रेम ।
यह जीवन यापन करना कठिन है ,
किसान ,गरीबों का यह पेशा है ।
धूप में ख़ून जला कर ,
परिवार की कुछ ज़रूरतें पूरा करता है ।
ये अपने बच्चों को देता सीख
तुम मत बनना मेरे जैसा चरवाहा , मज़दूर, किसान..
भूखे रह कर दो अक्षर पढ़ लो ,
गढ़ लेना हुनर का कोई काम ,
बन जाना कोई दफ़्तर का बाबू ,
तुम ना जताना किसी पर अहंकार ।
हमने पग पग अपमान सहा है ,
गरीबी , अनपढ़ के कारण !
हां मैं चरवाहा हूं,
गाता हूं प्राकृत के गीत
दूसरों को सुख दे कर
मैं सदा अकेला पता हूं।
