अलग -थलग लोग
अलग -थलग लोग
धर्म – कर्म सब छोड़ कर
कुद पड़े सब राजनीतिक ‘हवन कुण्ड’ में l
बेज़ुबान बूत पड़े है ! मंदिरों, गिरजाघर, मस्जिदों में l
क़त्ल हो रहे इंसान l
रुक क्यों नहीं रहा यह खेल तब / अब भी ?
हाड़ – मांस जैसा सब यह इंसान l
पंत में बटकर अलग – थलग पड़ा इंसान l
सभी पंत, इंसान की ज़ड़ ढूंढ़ते.. l
क्या मिला उसके फलसरूप …?
आपस में लड़ते , बटते रहें,
जिस सकूँ की तलाश में निकल पड़े थे
सकूँ कहाँ गायब हो गया.. l
कुछ पल नमाज़ अदा कर, पूजा – पाठ कर
मन की शांत मिल जाती l
आज फिर सियासी तूफ़ान उठा
नफ़रतें फिर से दीवाल को भेद कर
ख़ून के प्यासे हो गए l
मंज़र यह देख कर वह भी विचलित होते होगें
जिस पर हमारा, तुम्हारा यकीन है l
अब रख भी दो अपनी तलवारें मियान में
बहुरुपिया बहुत बन लिए तुम l
निस्बत जिस ख़ुदा / देवता पर है,
उनसे ज़रा राबता ना तोड़ ! इंसान के रूह में देखों ज़रा,
हर दिल पत्थर नहीं मोम भी है l
अपने दोष पर पर्दा डाल कर सच पर भी गुर्राओगे ?